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कषाय कर्म को दुश्चीर्ण-अशुभ बना देते हैं। इसलिये कषाय शुभ नहीं हैं और (वे) पुरुषार्थों को नष्ट करनेवाले हैं। अतः उनका हेयत्व कैसे नहीं है?
टिप्पण-१. कर्मों का ग्रहण काय योग से होता है। किन्तु उन्हें अशुभ बनाने में कारण रूप कषाय हैं। २. जो अन्य को अशुभ बनाता है; वह स्वयं शुभ कैसे हो सकता है ? ३. यद्यपि मंद कषाय से शुभ कर्म का बन्ध होता है, फिर भी कषाय शुभ नहीं हो सकते हैं। क्योंकि कर्मों की शुभता में हेतुरूप कषाय नहीं, किन्तु उनकी मंदता है । ४. मंद कषाय से बद्ध अधिकांश शुभ कर्म आत्म-कल्याण के हेतु नहीं बनते हैं और पुण्य फल के भोग से प्रायः अशुभ कर्म का ही बन्ध होता है। ५. कषाय तीव्र रूप में होने पर चारों पुरुषार्थों के नाशक हैं।
झाणं असुह-कत्तारा, भत्तारा दुग्गुणाण य । हेया भवम्मि यारा, कसाया अघ-सायरा ॥१११॥
ध्यान को अशुभ करनेवाले, दुर्गुणों के स्वामी भव में भ्रमण कराने वाला और पापों के सागर कषाय हेय हैं।
टिप्पण-१. कषाय की हेयता को सिद्ध करने के लिये इस गाथा में चार हेतु बताये गये हैं। यथा-ध्यान-अशुभ-कर्तृत्व, दुर्गुण-भर्तृत्व, भवनेतृत्व और अघ-निधित्व । २. कषाय के आवेश में भी चित्त की एकाग्रता होती है-वह ध्यान रूप में परिणत हो जाती है। परन्तु वह आर्त या रौद्ररूप अशुभ ध्यान होता है। इसप्रकार वह मूल में ही ध्यान को अशुभ कर देता है। ३. धर्मध्यान में आरूढ़ आत्मा में किसी निमित्त से कषाय का उदय होने पर वह ध्यान को अशुभ रूप में बदल देता है-श्री प्रसन्नचन्द्रराजर्षि के ध्यानवत् । ४. भर्तार शब्द के दो अर्थ-स्वामी और पोषक । कषाय दुर्गुणों के स्वामी भी है और पोषक भी हैं। क्योंकि कषायों के अस्तित्व में ही दुर्गुण