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__ मंत्री ने आकर गरुदेव से निवेदन किया। तब गुरुजी ने कहा"मंत्रीजी! अब रहने भी दीजिये। राजा अपनी महारानी के शरीर में अति आसक्त था। अतः वह मरकर उसके मलकूप में पैदा हुआ है। अब उसे वहीं सुख है। वह आपके प्रयत्न से नहीं मरेगा।" ।
इस प्रकार भोग-लालसा से भव-हानि होती है। रस-लालसा से चरित्र और भव की हानि
रसगिद्धी वि लोहंसा, वंचइ मंगु-आरियं ।
हा ! गुणसिहरारूढं, लोहो पाडेइ भूयले ॥१०१॥ लोभ की अंशरूपा रसगृद्वी ने आर्य मंगु (आचार्य) को छल लिया। हा! लोभ गुण-शिखर पर आरूढ़ (जीव) को भूमि-तल (मिथ्यात्व गुणस्थान) पर ला पटकता है।
टिप्पण-१. रसगृद्धि =जिह्वा की लोलुपता । शेष चारों इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति भी लोभ के अंश रूप ही है। २. रसासक्ति भी वंचना करती है । रस की लालसा सामान्य-सी बात प्रतीत होती है। किन्तु वह अति भयंकर दोष है। ३. रस-लोलपता साधारण-सा दोष लगने के कारण और संयमियों के द्वारा इसका सरलता से सेवन किये जाने के कारण पाँचों विषयों की आसक्ति में इसे प्रमुख रूप से ग्रहण किया गया है । ४. उत्कृष्ट संयमी, ज्ञानी और ध्यानी में गिने जाते हए भी इस दोष का सेवन किया जा सकता है। ५. आर्य मंग एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। जो रसासक्ति के कारण शिथिलाचारी हो गये और कालधर्म पाकर व्यन्तरदेव हुए। फिर उस देव ने अपने पूर्व-पर्याय के शिष्यों को प्रतिबोध दिया। ६. रसलोलुपता के सदृश किसी भी विषय की लोलुपता से जीव पतित हो सकता है। ७. गुणशिखर अर्थात् गणों का उच्चतर स्तर। गण के दो अर्थलौकिक और लोकोत्तर। लौकिक गुणों के ज्ञान, विज्ञान, विद्वता, नैतिक, राष्ट्रीय, सामाजिक, जातीय आदि अनेक भेद हो सकते हैं। लोकोत्तर गुण