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वे देवगति के सुख को छोड़ना नहीं चाहते हैं । अतः वे देव - सौख्य में लुब्ध होने के कारण पृथ्वी, पानी और वनस्पति के रूप में पैदा हो जाते हैं । २. मनुष्यों की भी ऐसी ही दशा होती है । वे जहाँ आसक्त होते हैं, क्वचित् वहीं पैदा हो जाते हैं । ३. दो श्रेष्ठ गतिवाले जीवों की ऐसी दशा है, तब तिर्यञ्चों के लिये तो कहना ही क्या ? यद्यपि तिर्यञ्च गति में लोभ की अति विपुलता प्रतीत नहीं होती, तदपि लोभ की मात्रा और आसक्ति आदि उनमें भी होती ही है । अतः वे भी लोभवशात पञ्चेद्रियत्व आदि उच्च दशा से पतित हो सकते हैं । फिर भी एकेन्द्रियादि रूप तिर्यञ्च गति और नरक गति तो अपने आप में हीन गतियाँ ही हैं । इन गतियों से निकले हुए जीव लोभ के कारण अगली गति में अल्प साधनवाले हो सकते हैं ।
राजा आसक्ति से कीड़ा हुआ
एक राजा अपने गुरु के सन्मुख बैठा था । गुरु बार-बार उसके मुख की ओर देख रहे थे। उसने इसका रहस्य जानने की इच्छा प्रकट की । गुरु ने कहा -- “ इसका रहस्य जानकर तुझे दुःख होगा ।" राजा ने रहस्य जानने की हठ की । तब गुरु ने कहा -- “अब तेरा आयुष्य कुछ का है।"
यह बात जानकर राजा को कुछ आघात हुआ । उसने पूछा --" सच, कितने दिन बाद मेरा अन्त होगा ? कैसे होगा ?" गुरु ने कालावधि और मृत्यु का हेतु भी बता दिया ।
राजा कुछ देर मौन रहा । फिर अपने मन को दृढ़ करके बोला—"गुरुदेव ! यह तो एक ध्रुव सत्य है कि जिसने जन्म लिया है, वह अवश्य मरेगा । कोई जल्दी तो कोई देर से । पर मेरी एक जिज्ञासा और है । मैं मरकर कहाँ जन्म लूँगा ?"
" राजन् ! इतना भेद जानना ही पर्याप्त है। आगे का रहस्य जानने कोई सार नहीं है ! " राजा जिद के स्वर में बोला -- " गुरुदेव ! गुरुदेव ! ! आपको आगे रहस्य बताना ही होगा ।"