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वाला । लोभ बुरे अन्त या खराब परिणामवाला ही है । क्योंकि वह भले जनों की भलाई को - सज्जनों की सज्जनता को नष्ट ही करता है । इस शब्द के 'क' प्रत्यय लगाकर लोभ की अत्यन्त हीनता को सूचित किया है । लोभ से प्रिय की घात -
लोहा सूरियकंताएं धम्मी पई हु मारिओ । हिय-चितअ-रूवोत्ति, लोहो वंचइ जंतुणो ॥९९॥
लोभ के कारण रानी सूर्यकान्ता के द्वारा धर्मी पति मारा गया । हित - चिन्तक के रूप में लोभ जीवों को ठगता है ।
टिप्पण - १. लोभ अपना रूप पलटता है । वह जगत, समाज, देश आदि की हितचिन्ता के रूप में भी उदित हो सकता है । २. रूप बदलकर प्रविष्ट लोभ अधिक भयावह होता है । क्योंकि उससे जीव छला जाता है । वह उससे प्रेरित होकर अनर्थ को भी एक पावन कर्तव्य के रूप में समझने लगता है। ३. राजा पएसी जब नास्तिक से आस्तिक / श्रमणोपासक बन गया, तब उसकी महारानी सूर्यकान्ता को वह राज्य के लिये अहितकर प्रतीत हुआ । अतः उसने उसका अंत कर दिया ।
लोभ से परलोक की हानि
चइऊण सुरा होंति, एगिदिया-त्ति तव्वसा । गरा वि जत्थ आसत्ता, तत्थुप्पज्जंति मूढगा ॥१००॥
उस (आसक्ति रूप लोभ ) के वश में पड़े हुए देव (देवत्व से ) च्यवकर एकेन्द्रिय ( के रूप में) हो जाते हैं और मनुष्य भी जहाँ आसक्त होते हैं, वहाँ वे (लोभ के वश में) मूढ ( बने हुए) उत्पन्न हो जाते हैं ।
टिप्पण - १. भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और दूसरे देवलोक तक के वैमानिक देव अपने आभूषणों बावड़ियों आदि में आसक्त हो जाते हैं ।