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आदि से कषायों की हानि का प्रेक्षण भी आत्माभिमुख वृत्ति से ही होता है । ५. अपने आपको सुनाई दे इसप्रकार आत्मा का अनुशासन करना भी श्रवण का एक रूप है। आत्मानुशासन के रूप में चिन्तन भी किया जाता है। आज की भाषा में इसे आत्म-सूचन कहा जाता है। ६. लोभ का प्रकरण होने से श्रवण आदि चारों अंगों को उससे संयोजित किया गया है।
णेहं नीइं मइं धम्म, लोयं नासइ सो रिऊ । 'महासत्तू'-जिणा बिति-'लोहो सव्व-विणासणो' ॥१०३॥
जो स्नेह, नीति, बुद्धि, धर्म और लोक (में से एक) का (भी) नाश करता है, वह शत्रु है। किन्तु जिनेश्वरदेव कहते हैं कि —'लोभ महाशत्रु है, क्योंकि वह सर्व विनाशक है।'
टिप्पण-१. 'जिन' शब्द बहुवचन है। अतः उससे कालिक समस्त जिनेश्वर देवों का ग्रहण होता है। २. लोभ सर्व-विनाशक है-यह त्रैकालिक सत्य है। ३. लोक अर्थात् इहभव, परभव और तदु भय भव या लम्बी भवपरम्परा।
हियमिसेण लोगस्स, मुणी कयाइ चुक्कइ । चुक्कावेइ गुरुं सड्ढा, लोह-माहप्प केरिसं ॥१०४॥
लोक के हित के बहाने कदाचित् (कोई) मुनि चुक जाते हैं और श्रद्धालु जन भी गुरु से चूक करवाते हैं। यह लोभ का कैसा माहत्म्य है।
टिप्पण-१. त्यागी मुनि लोक-हित के बहाने लोभ में पड़ जाते हैं। अनुकम्पा, संस्था, उपकार, धर्म-प्रचार आदि आकर्षक संज्ञाओं के तले मुनि परिग्रही बन जाता है। २. लोक-हित की संज्ञा प्रदान कर देने के कारण लोभ-जनित कार्य दोष रूप लगता ही नहीं है। उसी के साथ सुखशीलियापन