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आदि से वैर कर लेता है । ३. वह अपने आपको भी खान-पान, सुख-सुविधा आदि से वंचित कर लेता है। अपने प्रति मानों आप ही शत्रु हो-ऐसा व्यवहार करने लग जाता है। लोभ में जीव मृत्यु की भी परवाह नहीं करता है। ४. लोभ में दुष्कर्म करने के कारण वह दुर्गति में जाता है । अतः इस दृष्टि से भी वह अपना शत्रु ही बनता है। इसप्रकार वह अपने आपका भी नहीं होता है। जैसे वह किसी का नहीं बन सकता है, वैसे ही उसका भी कोई नहीं बन पाता है । ५. इस गाथा में तीन प्रकार के सम्बन्धों के प्रति और अपने आपके प्रति बेपरवाही का वर्णन है। मानषिक सम्बन्ध दो-प्रियता और मैत्री। देहजन्य सम्बन्ध दो-कौटुम्बिक और अपत्य-सम्बन्धी और भोगजन्य सम्बन्ध एक-पत्नी या पति से सम्बन्धित ।
लोभी न माने सम्बन्ध सगाई दो भाई अपनी पूज्य माँ और प्रिय बहिन को छोड़कर, विदेश में धनार्जन के लिये गये । एक नगर में डेरा जमाया। खूब श्रम किया और काफी सम्पत्ति अजित की। वे धन को स्वर्णमुद्राओं में परिणत करके अपनी जन्मभूमि की ओर चल पड़े । उन्होंने स्वर्णमुद्राओं को एक नौली में भर लिया था । क्रमश: पारी के अनुसार नौली को सुरक्षित रूप से अपनी-अपनी कमर में बाँधकर चल रहे थे। उन्हें अपार हर्ष हो रहा था।
वे अपने नगर के समीप पहँचे। वहाँ एक ग्राम था। वे नदी के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे ठहर गये और भोजन की व्यवस्था करने लगे । नदी भी पास में ही बह रही थी। हरा-भरा प्रदेश था । प्रकृति की छटा मन को लुभा रही थी। बड़े भाई ने छोटे भाई को किसी काम से गाँव में भेजा। छोटे भाई के मन में आया - 'बड़े भाई को मारकर मैं ही सब मुद्राएँ क्यों न ले लं।' बड़े भाई ने भी सोचा 'दो भाग करने होंगे-धन के। यदि मैं छोटे भाई को मार डालू तो यहाँ कौन देखनेवाला है। तब तो सब धन मेरा हो जायेगा।'
छोटा भाई ग्राम की ओर से आ रहा था। वह इसी उधेड़बुन में लगा हआ था कि मैं भाई को कैसे मारूँ ? उसने देखा कि उसके बड़े भ्राता उसकी