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लोभ से प्रेरित जीव निश्चय ही दुष्ट कर्म करने लग जाते हैं । जो भी उससे विमोहित होते हैं, वे क्या कार्य नहीं करते हैं ?
टिप्पण -- १. गाथा ९३, ९४ और ९५ में प्रमुख रूप से आभ्यन्तर हानियाँ - परवशता, विडम्बना, वियोग, दुःख-प्राप्ति, गुण-नाश, दुर्गुणउत्पादन आदिहानियों को गिनाया । अब इस गाथा से लोभ के निमित्त से बाह्य क्रिया-जन्य हानियों का वर्णन किया जा रहा है । २. इस गाथा में लोभ-प्रेरित सामान्य अशुभ क्रिया का निर्देश किया है और लोभ से दिग्भ्रमित के लिये किसी भी कोटि का दुष्कर्म अकरणीय नहीं होता है अर्थात् लोभी जीव समाज-द्रोह, देश-द्रोह, संघ- विभेद, विश्वसित - वंचन, चौर्य - कर्म, व्यभिचार, प्राणिघात, भ्रष्टाचार आदि कोई भी निष्कृष्ट दुष्कार्य कर सकता है । ३. लोभ से बुद्धि की गति अवरुद्ध हो जाती है । अतः शुभअशुभ का विवेक ही लुप्त हो जाता है । फिर तो दुष्कर्म स्वाभाविक प्रतीत होने लगता है ।
लोभी का अपना कोई नहीं -- लोभ में स्व-पर में शत्रुता
ण लोहिणो पियो कोई, ण मित्तंण कुडु बिणो ।
व पुत्त-कलकत्ताइं रिऊ हि अप्पणो वि सो ॥९७॥
लोभी के ( मन में ) कोई प्रिय नहीं होता है । उसको न कोई मित्र, न सगा - सनेही या कुटुम्बी और न ही स्त्री-पुत्र होते हैं । वस्तुतः वह अपना भी शत्रु होता है ।
टिप्पण - १. लोभी का मानदण्ड परिग्रह ही होता है । अतः उसके सिवाय अन्य कोई प्रिय नहीं होता है । २. लोभी का आराध्यदेव लोभ ही होता है । इसलिये वह उसके लिये सब कुछ समर्पण कर सकता है । उसके लिये कोई भी सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण नहीं है । वह लोभ में मित्र के साथ विश्वासघात कर सकता है । कुटुम्बियों से नाता तोड़ सकता है और पिता, पुत्र