________________
( १४० )
आभारी हूँ। किन्तु मैं इस पद का भार वहन कर सकू-इतनी सामर्थ्य मझे अपने में प्रतीत नहीं होती। इसलिये आप मुझे क्षमा करें।" संघमुख्य निराश हो गये। कुछ ने उसे उपालंभ दिया तो कुछ ने प्रशंसा भी की।
आखिर में सूरचन्द्र प्रमुख और मुक्तिचन्द्र उपप्रमुख रूप में स्थापित किये गये । दोनों का खूब जय-जयकार हुआ ।
पत्रकारों ने दोनों की महिमा के गीत गाये । अन्य जनों ने भी पद नियक्ति और तत्संबन्धी समारोह के विषय में काफी लिखा । कई दर्शकों ने भी इधर-उधर से बातें लेकर रिपोर्टाज लिखे। किन्तु किसी ने भी लघुचन्द्र के विषय में एक पंक्ति भी नहीं लिखी। इस बात का लघुचन्द्र को बहुत बुरा लगा । वह सोच गया-क्या मैंने कुछ भी त्याग नहीं किया ? इतना मान-सम्मान मुझे वरण करने आ रहा था ! पर मैं उसके प्रति लालायित नहीं हुआ तो क्या यह मेरा कुछ भी त्याग नहीं है ? कहाँ पर गये वे पत्रकार, जो खुर्दबीन लगाकर मुझ में जो नहीं था वह देख रहे थे और जो है उसे खुली आँखों से भी नहीं देख सकते?...' इस चिन्तन से लघुचन्द्र तिलमिला गया। उसी समय उसे एक गंभीर अन्तर्नाद सुनाई दिया-क्या सोच रहे हो तुम ? मानत्याग का मान कर रहे हो ! तुमने मानत्याग किसलिए कियाआत्मशान्ति के लिये ही न ! आत्मसुख के लिये ही न ? फिर अशान्त और दुःखी क्यों हो रहे हो ?'
टिप्पण-१. मान के त्याग का मान भी कषाय ही है। २. उससे भी दुःख ही पुष्ट होता है। वह आकुलता का जनक ही है। ३. जो आकुलता का घर है और आत्मशान्ति का हनन करता है, वह प्रशस्त कैसे हो सकता है ? ४. लोगों की प्रशंसा से त्याग का क्या लेना-देना? प्रशंसा पाने के लिये किया गया त्याग त्याग ही नहीं है। ५. त्याग लोगों के लिये नहीं, आत्मकल्याण के लिये किया जाता है। अतः किसी भी त्याग की प्रशंसा की चाह आत्महित की भावना