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को मन्द करती है। ६. वस्तुतः किसी भी दुर्गुण के त्याग का मान उसी दुर्गुण को आमन्त्रित करता है तो सद्गुण का मान उसी गण को मलिन और विनष्ट करता है। ७. जबतक केवलज्ञान की प्राप्ति न हो, तबतक साधना को पर्याप्त या पूर्ण समझना और उससे विराम लेना-साधना का मान ही है। यद्यपि यह तीव्र मान नहीं है, 'फिर भी यह साधना का अवरोधक और दोषों का आविर्भावकारक है।
( ३ ) माना-हानि पश्यना
'माया से धर्म आदि की हानि
माया सल्लंहि मग्गम्मि, जोगे करेइ वक्कयं । पिहेइ धम्म-दारं च, गुणे सव्वे वि दूसइ ॥२॥
माया (मोक्ष-) मार्ग में शल्य-काँटा ही है। वह योगों-शुभ क्रिया में वक्रता कर देती है, धर्म के द्वार को बन्द कर देती है और सभी गुणों को दूषित कर देती है।
टिप्पण-१. जैसे अंग में पैठकर काँटा कसकता है और चलने में बाधक होता है, वैसे ही हृदय में पैठी हई माया भी खटकती है और 'मोक्ष-साधना में विघ्न पैदा करती है। २. योग शब्द के दो अर्थ-मन, वचन और काया की क्रिया और स्वाध्याय, ध्यान आदि सत्क्रियाएँ या 'निर्जरा-तपोऽनुष्ठान । माया से मन आदि की क्रिया वक्र हो जाती है
और स्वाध्याय आदि भी पूर्णतः निर्जरा के हेतु न रह पाते हैं। ३. 'धर्म के दो भेद-सूत्रधर्म और चरित्रधर्म। माया के कारण ये दोनों 'धर्म रूप में परिणत नहीं हो पाते। ४. माया के कारण क्षमा आदि गण दूषित होकर, उसी के पोषक बन जाते हैं। ५. इस गाथा में