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पकड़ पाना सरल नहीं है । २. ऋजुता के प्रमुख दो भेद हो सकते हैं-व्यावहारिक और पारमार्थिक । संसार के व्यवहार में अवञ्चकता अथवा कुटिलता, छल और वक्रता से रहित भाव व्यावहारिक ऋजता है । इसके अनेक भेद-प्रभेद हो सकते हैं। नैतिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, औद्योगिक आदि। साधना में प्रवृत्त साधक का अपनी साधना के प्रति प्रामाणिक भाव-अवंचकभाव पारमार्थिक ऋजुता है। साधक के प्रमुख दो प्रकार-मोक्षमार्गाभिमुख और मोक्षमार्गप्रतिपन्न । तदनुसार ऋजता के भी दो प्रकार हो जाते हैं-मार्गानसारिणी-ऋजुता और मार्गगतऋजुता । द्वितीय ऋजुता को उत्तम ऋजुता कहा गया है । ३. इन सभी प्रकार की ऋजुता को माया नष्ट करती है। इसीलिये उज्जुत्त का सयल विशेषण दिया गया है। ४. मैत्रीभाव के दो रूप-दूसरे के प्रति अपना मैत्रीभाव और अपने प्रति दूसरों का मैत्रीभाव । माया दोनों प्रकार के मैत्रीभाव को नष्ट करती है । दूसरों के प्रति अपने मन में वञ्चक-वृत्ति प्रकट होने पर उसके प्रति मैत्रीभाव कैसे टिक पायेगा और जब वह अपना मायाचार जानेगा, तब उसकी मैत्री अपने प्रति कैसे रह सकेगी। ५. इस गाथा में माया से होनेवाली तीन हानियाँ बतलायी हैं-दुराशय से युक्त गोपनता, ऋजुतानाश और मैत्री-नाश । 'माया से किसकी हानि होती है ?
व वंचिज्जए अण्णो, मायी वंचिज्जए सयं । सो य वेसासिओ णेव, घिणा-पत्तो हविज्जइ ॥८॥ (माया के द्वारा) दूसरा नहीं ठगा जाता है, किन्तु (अपने द्वारा) मायी स्वयं ठगा जाता है और वह निश्चय ही विश्वासपात्र नहीं होता है, किन्तु घृणा-पात्र हो जाता है ।
टिप्पण-१. निश्चयनय की अपेक्षा से कोई किसी को नहीं ठग सकता । क्योंकि ठगे जानेवाले जीव तद्रूप कर्मों का उदय हो, तभी