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टिप्पण-१. माया के परित्याग का मार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग । क्योंकि माया मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं होने देती है । सन्मार्ग को उन्मार्ग बना देती है और जीव को सन्मार्ग पर सीधा नहीं चलने देती है। अतः उसके आंशिक त्याग से जीव मोक्षमार्ग के सन्मुख होता है । जीव ऋजु होता है, तो मोक्षमार्ग पर शान्ति से चल सकता है। इस दृष्टि से माया-त्याग के उपाय मोक्ष के उपाय ही हैं। २. माया इतनी निगूढ़ रहस्यमयी है कि वह उसके त्याग के उपायों में भी उभर सकती है। ३. माया के दो हेतु-पाने के लिये और दिखाने के लिये। भौतिक पदार्थ, गौरव और गुण -ये तीन प्राप्य हैं। अतः इन तीनों के लिये माया की जा सकती है। दिखाना दो प्रकार काअपना और पराया । अपना बुरा नहीं, अच्छा दिखाना और दूसरे का अच्छा नहीं, बुरा दिखाना। अपने और पराये के दो-दो भेद व्यक्ति और समूह। अपनी इकाई-स्वयं और स्व-जन । अपना समूह-बाह्य कारणों से जिनमें अपनत्व आरोपित हो ऐसा मानव-समूह । जैसे-जाति, देश आदि । पराई इकाई-अपने या अपनों से भिन्न कोई भी व्यक्ति । पराया समूह-जिनमें अपनत्व न हो ऐसा जन-समूह । जैसे परजाति आदि । इनसे संबन्धित माया भी हो सकती है। ४. समस्त माया करना निषिद्ध है। किन्तु यहाँ गुणप्राप्ति के लिये माया करने का विशेष रूप से निषेध किया गया है । गुणप्राप्ति का उद्देश्य शुभ है । लेकिन शुभ उद्देश्य से कृत माया भी प्रशस्त नहीं है। अतः अशुभ उद्देश्य से कृत माया तो अप्रशस्त ही है। ५. शुभ उद्देश्य से की गयी माया भी पाप ही है । पाप जीव को बहिर्मुख बनाता है । अतः वह हेय है। ६. आत्मा में रति अर्थात् आत्म-भाव में रमणता । माया पर-रति का परिणाम है । माया का परित्याग अर्थात् पर-रति की आंशिक निवृत्ति । इससे आत्मरति का प्रारंभ हो सकता है।
(४) लोभ-हानि-पश्यना लोभ का दासत्व
सुहरूवो परो लोहो, जोवे णिवो व सासइ । त्रिभुवणम्मि घोसेइ, दासा सव्वेवि मे पया ॥९३॥