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टिप्पण-१. निन्दा, अपयश, मित्रनाश आदि माया से होनेवाली ऐहिक हीनता है और स्त्रीत्व, तिर्यञ्चता आदि की प्राप्ति पारलौकिक हीनता है। २. साधक अपने साधना-गत दोषों को छिपाने के लिये और आलोचना में अपने यश की सुरक्षा के लिये माया करता है तो उसके तीन भव गर्हित होते हैं। ३. माया को छिपाने के लिये भी माया होती है और मृषावाद के साथ माया विश्वासघात का रूप भी ले सकती है। जिसका अति निष्कृष्ट फल होता है। ४. माया के कारण जीव घृणापात्र हो जाता है और अन्य हीनता को प्राप्त होता है, तब वह शोक-सागर में निमग्न हो जाता है । वह माया-जनित पाप फल तो भोगता ही है। किन्तु वह मायावत्ति भी बनी रहती है, जिससे वह अपने दुःख के कारणों को समझने की बुद्धि भी खो देता है । अतः उसके दुःख की कोई सीमा भी नहीं रहती है। ५. जिन-आगमानुसार माया की हानि को सुनने से अर्थात् जिसने माया के दुष्फलों को भलीभाँति जाना है, उनसे सुनने से माया के प्रति अरुचि उत्पन्न होती है। ६. माया आभ्यन्तर विकार भाव है । शब्दों के द्वारा उसके स्वरूप और उसके द्वारा होनेवाली हानि को पकड़ना एकदम सरल नहीं है। पुनरपि पुनः सुनने से वह भाव ग्रहण होता है । उस भाव को बुद्धि के द्वारा ग्रहण कर लेना ही ज्ञान है। ७. गृहीत भावों के विषय में उनकी हानि आदि के सम्बन्ध में पुनः उन्हीं भावों को बुद्धि में लाकर विविध दृष्टियों से सोचना चिन्तन है। ८. पुनरपि पुनः माया आदि की हानियों का चिन्तन करके, उस बुद्धि को दृढ़ बनाना पश्यना है। अन्य जीवों में भी माया आदि के दुष्फलों को देखना भी पश्यना है । उसे अनुभव भी कह सकते हैं । ९. माया को माया रूप में सुनने, जानने, सोचने और देखने से वह कुछ न कुछ दुर्बल होती ही है।
माया-चायस्स मग्गम्मि, ण गणट्ठा वितं करे । सा पावो एव तं चिच्चा, कुज्जा अप्पेरई बिऊ ॥१२॥
माया के परित्याग के मार्ग में (चलनेवाला साधक) गुण के लिये भी उसे नहीं करे । क्योंकि वह पाप ही है । अतः विज्ञ पुरुष माया का परित्याग. करके आत्मा में रति करे।