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माया से चार हानियाँ बतायी है—गतिरोध, योग वक्रता, धर्मद्वारपिधानता, गुण-दूषणता इसी बात को और स्पष्ट किया जाता है
विसंसेण पयं दुळं, महु - घयाइ - मिस्सियं । तहा मायंस - मित्तेण, किरिया मइलिज्जइ ॥३॥
(जैसे) मध, घत आदि से मिश्रित दूध विष के अंशमात्र से दुष्ट = जीवों के प्राणों का द्वेषी होता है, वैसे ही माया के अंशमात्र से क्रिया मलिन-खराब हो जाती है
टिप्पण-१. मधु, घृत, केशर, मेवा आदि से युक्त कढ़ा हुआ दूध भी अंशमात्र जहर से मारक बन जाता है अर्थात् जहर के कारण शक्तिप्रद पदार्थ की शक्तिप्रदता-जीवन-प्रदायकता समाप्त हो जाती है। वैसे ही अंशमात्र से सत्क्रिया दूषित हो जाती है-उसकी तारकता विनष्ट हो जाती है। २. माया से यक्त भाव दंभ रूप में परिणत हो जाता है । वह सत् पुरुषार्थ को हीन बना देती है-इतना नहीं, किन्तु संसार-वृद्धि का हेतु बना देता है। ३. माया मोक्षपुरुषार्थ की परम घातक है । माया से ऋजुता और मैत्री का नाश
गहीरे वसए माया, ण बाहिरं लहिज्जइ । उज्जुत्तं सयलं ताए, मेत्तीभावो य णस्सइ ॥४॥
माया अत्यन्त गहरे में रहती है । वह बाहर लब्ध ही नहीं होगी-पकड़ में ही न आयेगी। वह सकल ऋजुता और मैत्रीभाव को नष्ट करती है ।
टिप्पण-१. माया का वास पेट में माना गया है। अतः उसका निवास गहराई में बताया है अर्थात् मायाचार निगूढ होता है। उसे