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किसी ने उन्हें समझाने के मिस टिप्पणी की - 'मुनिजी ! यह चिन्तन सिद्धान्त से मेल नहीं खाता है । जिन्हें आप रूढ़ियाँ कहते हो, उन्हीं नियमउपनियमों के माध्यम से जीवन में धर्म को मूर्तिमान किया जाता है । वे साधना के अविच्छिन्न अंग हैं । इनके पालन के बिना साधना ओजस्वी नहीं हो सकती है । आपका चिन्तन वक्र है ।'
शीलवान मुनि ने इस बात का खण्डन किया- 'नियम वे ही हैं - जो धर्म में-धर्म के प्रसार-प्रचार में सहायक हों और जो धर्म की प्रगति में बाधक हैं, वे सब रूढ़ियाँ हैं । इन रूढ़ियों से बँधकर जैन साधु उपाश्रय की चहारदीवारी में कैद हो गया है । मैं उनसे आह्वान करता हूँ । उन्हें धर्मप्रचार के लिये खुलकर मैदान में आना चाहिये । समस्त आधुनिक साधनों को उन्हें अपनाना चाहिये ।'
उनका प्रतिवाद भी तीव्रता से हो रहा था ।
शीलवान मुनि को लगा कि बिना चमत्कार के धर्म का प्रचार नहीं हो सकता है । अतः वे मंत्र साधना की ओर झुके । किन्हीं प्राचीन मुनि के स्मृति मंदिर में वे साधना करने गये । अब उन्हें विश्व संत बनने की धुन जागी । भारत के बाहर धर्म प्रचार करने की इच्छा हुई । अतः वे कुंडलिनीयोग, ध्यान-योग, ज्ञानयोग आदि योगमार्ग की साधना में लगे ।
उनके भक्तों का एक बड़ा झुण्ड हो गया था । वे उन्हें उल्टी-सीधी बातें समझाने लगे – 'जैनधर्म विश्वधर्म है । आज वह एक कोने में दब गया है - मुनियों की नादानी के कारण । आज विश्व में धर्म-प्रचार की बड़ी आवश्यकता है । क्योंकि भौतिक विज्ञान के प्रवाह में बहता हुआ विश्व आज विनाश के कगार पर खड़ा है। विज्ञान और धर्म में समन्वय साधना होगा । उठ, बंदे ! कस कमर..
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भक्त कहते - 'आप बिल्कुल ठीक फरमा रहे हैं । हाँ, ऐसा होना ही चाहिये | दुनिया को शान्ति का पैगाम देना ही होगा । पधारिये आप विदेश