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सभी क्रोध आदि (कषाय के) भाव मोक्षमार्ग से वक्रतारूप ही हैं। इसकारण माया शब्द से उन सभी का ग्रहण होता है।
___टिप्पण-१. जब व्यक्ति क्रोध, मान आदि कषायभाव से युक्त हो जाता है, तब वह मोक्षमार्ग से कुछ न कुछ दूर हट जाता है। २. मोक्षमार्ग से दूर हटना अर्थात् उससे कुछ फिसल जाना। इसप्रकार वह मार्ग से कुछ विपरीत हो जाता है और ऐसा होना वक्रता ही है। ३. इस दृष्टि से चिन्तन करने पर सभी कषायों में माया की प्रधानता प्रतीत होगी। अतः 'माया' शब्द से अन्य कषायों का ग्रहण करना अनुचित नहीं है। माया और अन्य कषायों की अन्योन्य-आश्रयता
जया वि होइ आवेसे, उज्जुयं नासए तया । होइ जया वि वक्को वा, आवेसं गच्छए तया ॥८॥
जब भी जीव आवेश में होता है, तब ऋजुता का नाश होता है या जब भी जीव वक्र होता है, तब वह आवेश में प्रविष्ट हो जाता है अर्थात् आवेश और वक्रता अन्योन्याश्रित हैं।
टिप्पण-१. क्रोध आदि कषाय के भाव आवेश हैं। २. क्षमा आदि धर्म ऋजुता के आश्रित हैं अर्थात् ऋजुता हो तभी क्षमा आदि धर्म टिक सकते हैं । यथा-सोही उज्जय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइऋजुभूत आत्मा की शुद्धि होती है और शुद्ध आत्मा में ही धर्म टिकता है। ३. ऋजुता का नाश अर्थात् मोक्षमार्ग का नाश । ऋजुता से रहित होना अर्थात् वक्र होना। ४. जब भी आत्मा वक्र होता है, तब उसमें किसी न किसी रूप से आवेश होता ही है। ५. वक्रता आवेशमय है और आवेशवक्रतामय है। अतः 'माया' शब्द से समस्त कषाय का ग्रहण होना योग्य ही है।