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अब अपनी ओर भी दृष्टि गयी तो अपने संघ में से भी श्रद्धा उठने लगी- 'इतने समय से हम ज्ञान-ध्यान कर रहे हैं ! चारित्र पाल रहे हैं ! क्या विशेषता हुई इससे ! मन के विकार तो मरे ही नहीं ! कोई लब्धि भी प्राप्त हुई ही नहीं ! लगता धर्म-ग्रन्थों में अतिरंजना है... वृथा है संयम - पालन ! खैर, मैं तो कुछ समय का दीक्षित हूँ ! परन्तु ये बड़े-बड़े महात्मा ! क्या मीर मार लिया इन्होंने ?' उनमें ऐसे विचार पनप रहे थे । उधर संघ में उनके तेजस्वी ज्ञान की धाक जम रही थी । भक्त लोग उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते थे। कई सन्त भी उनमें भावी संघ प्रमुख को घड़े जाते हुए देख रहे थे ।
परन्तु मुनिजी की आन्तरिक दशा विचित्र थी । भीतर ही भीतर उनका मन उन्हें कुतर रहा था । उनके विचार हो रहे थे - 'यह धर्म दंभ है और धार्मिक दंभी हैं । धर्म-पालन से कोई लाभ नहीं !' उनके चरित्र - परिणाम पतित हो रहे थे । वे वहाँ से पलायन करने की सोच रहे थे । 'किन्तु संसार में धन के बिना पूछ नहीं होती है । पहले आगे की व्यवस्था करनी होगी।' उन्होंने बड़े गुप्त और असंदेहास्पद ढंग से पूरी व्यवस्था कर ली और फिर अपना असली स्वरूप दिखाना प्रारंभ किया ।
वे कहने लगे - 'धर्मं मात्र आदर्श की उड़ान है । उसे व्यवहार में नहीं उतारा जा सकता । ऐसे अपने को और लोगों को ठगने से क्या लाभ... ' उनकी ऐसी बातें सुनकर संघ में चिंता व्याप्त हो गयी ।
गुरु ने समझाया - बहुत समझाया । पर उन्होंने एक नहीं मानी। प्रत्युत् गुरु से ही प्रश्न किया - " इतने लम्बे समय के संयम- पालन से आपने क्या पाया है ? क्या हुआ है आपको अवधिज्ञान या मनः पर्यवज्ञान ? हुई है कोई लब्धि प्राप्त ?"
"भाई ! यह पंचमकाल है। श्रद्धा रखो- गुरु ने कहा । "
उन्होंने तेजी से कहा - "नहीं, ये सब बनावटी बातें हैं । मैं इनको नहीं मानता । चतुर्थकाल में ये ज्ञान हो सकते हैं तो पंचमकाल में क्यो नहीं