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पर स्थित मनुष्य अन्य को तुच्छ रूप में देखता है। वह अपने ही को महान समझता है। वह अपने सन्मान की उपलब्धि और सुरक्षा के लिये कुछ भी कर सकता है। ४. सन्मान पाने की तीन लालसावाला जन अपमान के गहरे गर्त में गिरकर भी सन्मान पाने के लिये विग्रहः खड़ा कर देता है। वह दयनीय अवस्था में पहुँच जाता है। ५. वस्तुतः मान यश-कीर्ति का नाशक है।
मान की प्राप्ति और सुरक्षा के लिये मनुष्य पाप करता हैमाणस्स रक्खणट्ठाए, सेसे तस्स सजाइए ।
अण्णे वि बहवे पावे, जीवा करंति पत्तु य ॥७॥
जीव मान की रक्षा और प्राप्ति के लिये उसके स्वजातीय शेष पापों को तथा अन्य भी बहुत सारे पापों को करता है।
टिप्पण-१. स्वजातीय पाप अर्थात क्रोध, माया और लोभ ये मान के स्वजातीय पाप हैं और हिंसा, झूठ, चोरी आदि कषायेतर पाप हैं। मान दोनों प्रकार के पाप करवाता है। २. पाप से जीव का धार्मिक-जीवन विनष्ट होता है। निज धर्म का विनाश अति भयंकर हानि है। ३. पाप-भीरु आत्मा को पाप से भय लगता है। वह मान की पापरूपता को भली भाँति जानता है। अतः उसे मानकषाय का उदय ही अत्यन्त हानिप्रद लगता है। ४. कदाचित् मानकषाय के उदय से तथा रूप भाव आ जाते हैं तो पाप-भीरु आत्मा को तप्तलौह पर पैर पड़ जाने के सदृश प्रतीत होता है। ५. ऐसा आत्मा अन्य कषायों और उससे इतर अन्य पापों का सेवन, मात्र मान के लिये, कितना हानिप्रद समझता होगा? उपसंहार और उपदेश
एवं सुणिज्ज जाणिज्ज, माणं चितिज्ज पासह । इह - पारत्त - होणत्तं, करंत अमियं दुहं ॥७९॥