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पद प्रदान करके अन्तिम आराधना करने में जुट गये। वे देह त्यागकर उत्तम गति में गये ।
शीलसनाह आचार्य विचरण करते हुए रुप्पी राजा की नगरी में पधारे । उपदेश सुनकर रुप्पी राजा का हृदय भी वैराग्य-वासित हो गया | योग्य व्यक्ति को राज्य देकर रुप्पी राजा दीक्षित हो गयी ।
रुप्पी साध्वी ने संयम की आराधना की । शरीर की दुर्बलता समझकर संलेखना की और अनशन करने के लिये आचार्य के समक्ष आलोचना की । किन्तु अपने चक्षु-दोष की आलोचना नहीं की । आचार्य के द्वारा इस विषय में संकेत किये जाने पर अपने पूर्व के प्रसिद्ध निर्मल जीवन पर अपयश का धब्बा न लग जाय इस भय से साध्वी ने कहा - " मैंने तो आपकी परीक्षा करने के लिये आपकी ओर देखा था ।" साध्वी ने अपना दोष स्वीकार नहीं
किया ।
रुप्पी साध्वी ने उत्कट तपस्या भी की। संयम साधना भी की । उत्साह से अन्तिम आराधना भी की । किन्तु मान-अपमान की मिथ्या कल्पना में फँसकर शुद्ध आलोचना नहीं की । अपना दोष छिपाया । अतः उनका संयम दूषित हो गया । उन्हें दीर्घ काल पर्यन्त भव- भ्रमण करना पड़ा । ऐसी भुल भुलैया से भरी है-मान की मोहनी |
मान मधुर जहर है --
महुरं च विसं मंदं, सणियं सणियं भिसं । हरइ मोहगो माणो णरस्स भाव-जीवियं ॥ ७६ ॥
मान मधुर और मंद विष है । (यह ) मोहक मान मनुष्य के भाव - जीवन का शनैः-शनैः बहुत अधिक हरण कर लेता है ।
टिप्पण -- १. मान कटु विष के तुल्य नहीं है, किन्तु मधुर विष के सदृश है। तीव्र विष नहीं है अर्थात् तत्काल उग्र फल बतानेवाला