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________________ ( १३१ ) पद प्रदान करके अन्तिम आराधना करने में जुट गये। वे देह त्यागकर उत्तम गति में गये । शीलसनाह आचार्य विचरण करते हुए रुप्पी राजा की नगरी में पधारे । उपदेश सुनकर रुप्पी राजा का हृदय भी वैराग्य-वासित हो गया | योग्य व्यक्ति को राज्य देकर रुप्पी राजा दीक्षित हो गयी । रुप्पी साध्वी ने संयम की आराधना की । शरीर की दुर्बलता समझकर संलेखना की और अनशन करने के लिये आचार्य के समक्ष आलोचना की । किन्तु अपने चक्षु-दोष की आलोचना नहीं की । आचार्य के द्वारा इस विषय में संकेत किये जाने पर अपने पूर्व के प्रसिद्ध निर्मल जीवन पर अपयश का धब्बा न लग जाय इस भय से साध्वी ने कहा - " मैंने तो आपकी परीक्षा करने के लिये आपकी ओर देखा था ।" साध्वी ने अपना दोष स्वीकार नहीं किया । रुप्पी साध्वी ने उत्कट तपस्या भी की। संयम साधना भी की । उत्साह से अन्तिम आराधना भी की । किन्तु मान-अपमान की मिथ्या कल्पना में फँसकर शुद्ध आलोचना नहीं की । अपना दोष छिपाया । अतः उनका संयम दूषित हो गया । उन्हें दीर्घ काल पर्यन्त भव- भ्रमण करना पड़ा । ऐसी भुल भुलैया से भरी है-मान की मोहनी | मान मधुर जहर है -- महुरं च विसं मंदं, सणियं सणियं भिसं । हरइ मोहगो माणो णरस्स भाव-जीवियं ॥ ७६ ॥ मान मधुर और मंद विष है । (यह ) मोहक मान मनुष्य के भाव - जीवन का शनैः-शनैः बहुत अधिक हरण कर लेता है । टिप्पण -- १. मान कटु विष के तुल्य नहीं है, किन्तु मधुर विष के सदृश है। तीव्र विष नहीं है अर्थात् तत्काल उग्र फल बतानेवाला
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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