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________________ ( १३२ ) जहर नहीं है। क्योंकि तीव्र जहर का जहरपन जल्दी समझ में आ जाता है, मंद का नहीं। जैसे धूम्रपान मंद जहर है । जो उसके फंदे में फंस जाता है, उसे वह जहर रूप में दिखाई नहीं देता है। वैसे ही मान भी मंद विष-सा होने के कारण उसकी मारकता प्रतीत ही नहीं होती है। २. जहरीला पदार्थ मधुर होता है तो कोई भी स्वाद-लोलुप अजान के कारण उसे खा सकता है। जैसे किंपाक फल । मान जीव को अति मधुर लगता है। अतः जीव उसका निर्वाह बड़े शोक से करता है। ३. भावजीवन अर्थात् रत्नत्रय की आराधना अथवा ज्ञान, शक्ति, सुख और सत्ता रूप भाव-प्राण । मान इनका शनैः शनैः नाश करता है। जब भाव-जीवन का वह नाशक है तब द्रव्य जीवन का नाशक वह है ही। ४. मनुष्य को मान-कषाय अति आकर्षक लगता है। परन्तु उसका वह आकर्षण ही तो दुःखद है। मान मान का अपहारक है मरहिं होंति उम्मता, गारवेणेव उस्सिआ । तम्हा सो ते भमावेइ, माणं हिच्चा नराण खु ॥७७॥ मदों से (मनुष्य) उन्मत्त होते हैं और गौरव से ही ऊँचे उठे हुए अर्थात् अति उन्नत । इसकारण वह मनुष्यों के मान का निश्चय ही अपहरण करके उन्हें (भव में) भमाता है। टिप्पण-१. मानव मद से उन्मत्त हो जाता है और गौरव से वह अपने आपको उच्चता के शिखर पर आरूढ़ बना हुआ देखता है। २. मद से व्यक्ति बेभान हो जाता है और गौरव से व्यक्ति विपरीत रूप से सोचने लग जाता है। उन्मत्त व्यक्ति न दूसरे की सुख-सुविधा का ही ध्यान रखता है और न अपने शरीर का ही। वैसे ही मद में फंसा हुआ जन अन्य जनों के अपने प्रति व्यवहार और अन्य के प्रति अपने व्यवहार में लापरवाह हो जाता है। ३. गौरव के उच्च शिखर
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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