________________
( १३६ )
उसने सोमसुन्दर से कहा-“बेचारा कितना दुःखी है यह ! लगता है कि मेरा स्पर्श इसके लिये प्रतिकूल है। इसलिये आप कृपा करके इसे मार्ग से दूर वृक्ष की छाया में रख दें ?" ___सोमसुन्दर भी करुणा से द्रवित था ही। वह उसे उठाने गया । लेकिन, आश्चर्य ? उसने अपनी वृश्चिक-वृत्ति का ही परिचय दिया । उसने सोमसुन्दर को भी जोर से लात टिकायी । मानों वह इसे अपना तिरस्कार समझ रहा था। उसे पहले ही ज्यादा क्रोध आ रहा 'था। लात जोर की लगी कि सोमसून्दर भी चारों खाने चित्त गिर पड़ा। उन्हें लगा कि इसे ऐसे रहने देने में ही सुख है। वे उसे वहीं 'छोड़कर आगे बढ़ गये ।
वे केवली भगवान की सभा में पहुँचे । भक्ति-उल्लास पूर्वक वन्दन किया और उपदेश श्रवण करने के पश्चात गुणसुन्दर ने पूछा-“हे अन्तर्यामिन् ! हे प्रभो ! हमने मार्ग में दुःखी मनुष्य को देखा । कितना दुःखी है वह ? इस बात के स्मरण मात्र से रोम खड़े हो जाते हैं । प्रभो ! उसकी ऐसी दुर्दशा क्यों हुई ? अपने हितैषियों के प्रति भी इतने क्रोध से क्यों भर जाता है ?"
केवली भगवान् ने धीर-गंभीर वाणी में फरमाया-“देवानुप्रिय ! यह मान कषाय का कटु विपाक है । ताम्रलिप्ति नगरी के राजा का पुत्र था-गुणवर्धन । राजकुमार ने उद्यम से ज्ञानार्जन किया। वह बुद्धिमान था । राजा यशोवर्मा को अपने पुत्र पर गौरव था। राजकुमार भर यौवन में मस्त था। उसे अवधिज्ञानी मुनिराज का सत्समागम प्राप्त हुआ उनके उपदेश ने उसकी आत्मा पर गहरा असर किया। वह बड़े उल्लास से आत्म-साधना के मार्ग पर चलने के लिये लालायित हो उठा । उसने अपने पिता से बड़ी मुश्किल से आज्ञा प्राप्त की और उत्साह से परिपूरित हृदय से मंगलमय वातावरण में बड़े ठाठ से दीक्षित हो गया ।