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ऐसे विशिष्ट त्यागी की प्रशंसा होना स्वाभाविक ही है । जनजन गुणवर्धन के त्याग की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे। स्थविर मुनि और अन्य मनिजन भी उनकी महिमा करने में भाग लेते थे। लेकिन यह प्रशंसा उनके लिये हित रूप में परिणत नहीं हुई । गुणवर्धन मुनि भी अपने आपको महान् समझने लगे । इसका नशा उन पर छाने लगा । वे किसी की शिक्षा की बात को सुनने की क्षमता भी खो बैठे । उन्हें किसी की हितकर संयम-प्रेरक बात भी अति कट लगने लगी । वे जरा-जरा-सी बात में चिढ़ने लगे। रत्नाधिकों की अवहेलना करने से भी नहीं चूकते। गुरु भगवान् की भी आशातना कर डालते। फिर अन्य साथी मुनियों की तो गिनती ही क्या थी। वे संघ में अति अप्रिय हो गये। उनकी हाँ में हाँ मिलाते रहे, वहाँ तक ठीक और उसमें भी कब उनका पारा ऊँचा चढ़ जाय-इनका कोई पता नहीं। अतः सभी उनसे दूर रहने और कुछ नहीं बोलने में ही कुशल समझने लगे । गुणवर्धन मुनि संयम का पालन करते रहे। किन्तु गुरुजनोंसंयमियों की आशातना करते रहे । संयम-प्रेरक हितकर सारणावारणा का तिरस्कार करते रहे। वहाँ से कालधर्म करके देवगति पायी, परन्तु प्रशस्त नहीं । वहाँ से च्यवकर अब इस रूप में जन्म मिला है। चरित्र का पालन किया था, इसलिये रूप सुन्दर पाया । किन्तु जिह्वा का दुरुपयोग किया, गुरुजनों की आशातना की, इसलिये जिह्वा कटी हुई पायी। मान से सदा अकड़े-अकड़े रहे । अत: देह के अवयव भी पूरे और सक्षम नहीं पाये। उठने-बैठने की शक्ति भी छिन गयी। ऐसे पाप के दुष्फल को भोगते हुए भी वह पूर्व भव की मान की वृत्ति नहीं गयी है, ज्यों की ज्यों बनी हुई है; क्योंकि उसका अभ्यास दृढ़ जो हो गया है। अतः अभी वह कोई उसे शाता पहुंचाने आता है तो उन पर गुर्राता है-क्रोध करता है। ऐसा है यह मान का दुर्विपाक !"
जनता और वे गुणसुन्दर और सोमसुन्दर दोनों यह कर्म-कहानी सुनकर काँप उठे ।