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भाव है, उसे करना तुम्हारे स्वभाव के अनुसार अयोग्य है । ४. मान का भाव आता है तब मनुष्य उन्नत सिरवाला हो जाता है, परन्तु बाद में अधोमुख होना पड़ता है । ५. मान से जीव की बुरी दशा हो जाती है ।
मान का कटु विपाक
गुणसुन्दर और सोमसुन्दर उद्यान में केवली भगवान का पदार्पण सुनकर, वन्दन करने के लिये रवाना हुए । उन्होंने मार्ग में एक करुणा-जनक दृश्य देखा ।
एक सुन्दर पुरुष मार्ग के किनारे पड़ा था । बड़ी दुर्दशा हो रही थी उसकी । सौन्दर्य अत्यधिक आकर्षक, किन्तु शरीर उतना ही परवश । हाथ थे ठूंठ जैसे ! पैर छोटे-छोटे ! जिह्वा कटी हुई ! बोलना चाहकर भी बोल नहीं पाता । देह में कई रोग ! स्वयं न उठ सकता है, न बैठ सकता है । फटे - चिथरे कपड़े ! मक्खियाँ भिनभिना रही है । वह उन्हें उड़ा भी नहीं सकता है ।
मनुष्य है ! बेचारा
उठाकर एक तरफ
गुणसुन्दर का हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो उठा । उसकी आँखों में अश्रु छलक आये । उसे विचार आया- 'अहा ! कैसी दयनीय दशा ? कैसी प्रस्वशता ! कितना दुःख ! यह भी एक यहाँ मार्ग पर पड़ा है । कोई कुचल न दे इसे ? क्यों न रख दें !' गुणसुन्दर उसे उठाने गया । उसने उस अपंग के हाथ लगाया । इतने में ही वह गुर्राने लगा । उसने उसे उठाने का प्रयत्न किया । तब उसने गुणसुन्दर को जोर से लात मारी । गुणसुन्दर कटे वृक्ष के समान गिर पड़ा । वह धूल झाड़ने हुए उठ बैठा । परन्तु मन में करुणा का वेग तीव्र था । उसे लगा कि हो सकता है । इस दुःखी जीव को मेरा स्पर्श असुहाना दुःखद लगा हो ! यदि कोई अन्य इसे यहाँ से उठाकर सुरक्षित स्थान पर रखः दें तो अच्छा ! '