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को भी मनुष्य त्याग देता है तो पर- जन्म अशुभ को वह स्वीकार ही कैसे करेगा ? ३. कषाय परजन्य मालिन्य है । पर अर्थात् कर्म । कर्म पौद्गलक होते हैं और पुद्गल जीव के लिये पर हैं । कषाय कर्म - जन्य है । अतः वह आत्मा में पर से उत्पन्न मलिनता है ।
कसाय-भे- चिताए, भावो लेसा सुहा हवे । तिभेया धम्मझाणस्स, होंति अज्जो विसेसओ
॥४७॥
कषाय के भेद के चिन्तन से भाव और लेश्या शुभ हो सकते हैं । जिससे धर्मध्यान के तीन भेद होते हैं । (जिसमें ) पहला भेद विशेष रूप से ( घटित होता है) ।
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टिप्पण -- १. भाव = अन्तरङ्ग परिणाम । लेश्या = विशेष जमे हुए भावों का प्रवाह | झाण – दढ़ सदृश अध्यवसाय धारा या एक रूप दृढ़ अध्यवसाय । २. भेद के दो अर्थ —- रहस्य और प्रकार । कषाय का रहस्य और कषाय के प्रकार । ३. कषाय-स्वरूप के चिन्तन से जब कषायों के प्रति अरुचि उत्पन्न होती है और उनसे छुटने के भाव होते हैं, तब शुभ भाव होते हैं । वे भाव लम्बे समय तक चलते हैं, तब लेश्या की विशुद्धि होती है । विशुद्ध लेश्या में लीनता होने पर जब अध्यवसाय दृढ़ होते हैं, तब प्रशस्त ध्यान परिणति होती है । ४. धर्मध्यान के चार भेदों में से अन्तिम भेद को छोड़कर शेष तीन भेद - आज्ञाविचय, अपायविचय और विपाकविचय । कषाय के स्वरूप - चिन्तन से जिनदेव के द्वारा प्रतिपादित स्वरूप - आज्ञा रूप आज्ञा-विचय, कषायों के दोषों में ध्यान जमने पर अपाय-विचय और कषाय के स्तरों के फल-चिन्तन में भाव दृढ़ होते हैं तो विपाकविचय धर्मध्यान बनता है। किन्तु प्रधानरूप से आज्ञाविचय- धर्मध्यान निष्पन्न होता है ।
२. निरीक्षण-द्वार
कषाय के स्वरूप का चिन्तन करके उनके लक्षणों को भलीभाँति समझ कर उनका अपने भीतर निरीक्षण करना चाहिये । उनको तीक्ष्ण बुद्धि से