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टिप्पण-१. पासग शब्द से आलोकन के पश्चात् चिन्तन करने की सूचना दी है। क्योंकि आलोकन के द्वारा जानी हई कषाय की विपरीत प्रतीति चिन्तन के द्वारा अधिक स्पष्ट होती है और अपनी प्रवृत्ति में रहे हुए दृष्टि-विपर्यास को पकड़ा जा सकता है। २. कषाय की वक्रता अर्थात् कषायों का गुण रूप में प्रतीत होना । जीव को कषाय में उपादेय भाव से कषाय-जनित प्रवृत्ति में गुणवत्ता लगने लगती है। ३. वह भ्रम स्थूल बुद्धि से पकड़ में नहीं आता । सूक्ष्म-बुद्धि शास्त्रश्रद्धा से वासित न हो तो संसारोन्मुखी चिन्तन करती है। शास्त्रश्रद्धालु भी यदि मात्र तार्किक ही हो तो वह बौद्धिक चिन्तन ही करता है, साधना-परक नहीं । अतः पश्यक होना चाहिये । चिन्तक को । अन्तरात्मा, जगत्-व्यवहार और तत्त्वार्थ का निरीक्षक ही पश्यक हो सकता है। ४. पश्यक आत्मा भी सतत जाग्रत रहकर शास्त्र-सापेक्ष कषाय-स्वरूप के चिन्तन-पूर्वक अपने भीतर की कषाय-प्रवृत्ति का सूक्ष्म बुद्धि से निरीक्षण करता हुआ लोक-व्यवहार को टटोलता रहे, तभी कषायों की विविध रंगी प्रवृत्तियों को समझ सकता है और उनमें होनेवाले भ्रम को पकड़ सकता है । यही चिन्तन का शुद्ध स्वरूप है। ५. पश्यक पश्यक रहे। कषायों में कषाय प्रवृत्तियों में जुड़े नहीं। कषाय-उदय में कदाचित् बह जाय तो उसके पश्चात् निष्पक्ष बुद्धि से उनसे असंलग्न हो जाय और उसकी दोषरूपता को सोचे ।
कषाय-प्रवृत्ति में विपर्यास के उदाहरण
जहा देहाभिमाणो उ, सच्छया सब्भया वरा । रायंति किरियादंभो, सोक्ख-रूवो य दक्खया ॥५५॥
जैसे देहाभिमान स्वच्छता और श्रेष्ठ सभ्यता रूप में और सत्क्रिया का दंभ सौख्य और दक्षता रूप में विराजमान होते हैं ।
टिप्पण-१. मैं 'देह हूँ'-इस प्रतीति से देह का अभिमान पैदा होता है। जिससे देह के वर्ण को निखारने, सौन्दर्य बढ़ाने, ज्यादा