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हे साधको ! ' कषाय कहीं भी- कभी भी हितैषी नहीं होते हैंयह जानकर उनकी हानि का चिन्तन करो ।
टिप्पण - १. कथा शब्द काल का और कत्थ शब्द क्षेत्र का सूचक है । जिसका आशय यह है कि कषाय किसी भी क्षेत्र में भूतकाल • में किसी का हितैषी न हुआ, न वर्तमान में होता है और न भविष्य में होगा । यह निर्णय पक्का होना चाहिये । २. कषाय हितकर नहीं है, इतना ही निर्णय पर्याप्त नहीं है । किन्तु वे अहितकर हैं - यह भाव भी पक्का होना चाहिये । इसलिये उनकी हानि करता का चिन्तन करना भी अत्यावश्यक है । ३. समस्त साथकों के लिये यही मार्ग है । इसीलिये साहगा यह बहुवचन संबोधन दिया गया है ।
(१) क्रोध-हानि - पश्यना
क्रोध का उत्तमांग पर प्रभाव
सिरो तवइ नेत्ताई, विडंबs मुहं जेण, सरो फट्टइ सो उ को ?
तण्णंते हण्णए सिरी ।
॥ ६०॥
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जिससे सिर तप जाता है, नेत्र तन जाते हैं, श्री – शोभा नष्ट हो जाती है, मुँह विडंबित होता है और स्वर फट जाता है, वह कौन है ?
टिप्पण - १. इस गाथा में क्रोध से होनेवाली शारीरिक विकृतियों का वर्णन है । गले के ऊपर का भाग उत्तमाङ्ग हैं । क्रोध के कारण होनेवाली विक्रिया को बतलाकर यह जिज्ञासा की गयी है कि ऐसा करनेवाला कौन है ? क्योंकि ऐसा कार्य करनेवाला मित्र या सज्जन नहीं हो सकता है । ऐसे विकार - कर्ता के प्रति अरुचि जगाना ही इस जिज्ञासा का मुख्य हेतु है । २. जैसे लुटेरे दूर संदेश पहुँचाने