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( ११६ ) क्रोध से आभ्यान्तर हानियाँ
पोइ-विणासणो कोहो, कोहो सुबुद्धि-नासणो । धिइ-रुक्खाणलो कोहो, विवेग-सोसगोऽणिलो ॥६२॥
क्रोध प्रीति का विशेष रूप से नाश करनेवाला (तीक्ष्ण शस्त्र) है । क्रोध उत्तम बुद्धि को नष्ट करनेवाला (वज्र-सा) है । क्रोध धैर्य रूपी वृक्ष (को जलाकर भस्म करने) के लिये आग है । और विवेक (रूपी आर्द्रता का शोषण करने के लिये शोषक वायु है ।
टिप्पण-१. क्रोध से अपने भीतर का प्रीति-भाव का रेशम-सा कोमल, किन्तु दृढ़ तार टूट जाता है । क्रोधी को कोई भी अपना मित्र नहीं लगता, उसे सभी शत्रु रूप में ही दिखाई देते हैं । उसे माता, पिता, भाई, बेटे आदि सभी वैरी ही लगते हैं । उसे इतने बड़े जीव-समूह में कोई भी अपना प्रतीत नहीं होता है। ज्ञानदृष्टि से ममता दूर होने पर आत्मा में शान्ति का भाव जाग्रत होता है । किन्तु क्रोध के कारण अपनापन खत्म होने पर अशान्ति-आकुलता उत्पन्न होती है और आत्म-हत्या करने का मन होता है । ऐसी स्थिति में मस्तिष्क की विकृति चरम-सीमा पर पहुँच जाती है । उसके सोचने की दृष्टि एकदम विपरीत हो जाती है । इसप्रकार क्रोध हृदय के माधुर्य को खाक कर देता है । २. जो दूसरे को प्रीति नहीं देता है, उसे कौन प्रीति देगा ? क्रोधी के क्रोध को सहना सबके बस की बात नहीं है । संसारी जीव भी साधारण जीव ही तो है । वे कबतक क्रोध के बदले प्रीति दे पायेंगे ? इसप्रकार क्रोध से जीव चिढ़चिढ़कर अपने को प्राप्त होनेवाली अन्य की प्रीति की सरसता भी समाप्त कर देता है । तब उसे संसार तपती हई मरुभूमि जैसा ही लगता है । ३. क्रोध से सद्विचार की मूल सद्बुद्धि विनष्ट हो जाती है । बुद्धि अज्ञान-प्रवृत्ति और मूढ़ता के लिये तीक्ष्ण शस्त्र का कार्य करती है । किन्तु क्रोध उसके लिये वज्र-प्रहार का कार्य करता है । क्रोध में बुद्धि कार्य करती तो है, किन्तु उसकी गति वक्र हो