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टिप्पण - १. क्रोध का तीव्रतम अंश मोक्ष की रुचि नहीं होने देता है । जीव का चरम और परम लक्ष्य मोक्ष है - यह समझने ही नहीं देता है । अतः आत्मलक्ष्य का मोक्षरुचि का वह परम शत्रु है । या तो उन्हें होने ही नहीं देता है या उसकी मंदता में कदाचित् उनका उद्भव हो गया हो तो उन्हें नष्ट कर देता है । २. समस्त कषायों से रहित आराध्यदेव की पहचान, उनमें भक्ति और उनकी उपासना की रुचि क्रोधादि की मंदता में ही हो सकती है । क्रोध सुदेवार्चन का भी परम शत्रु है । ३. आत्मा की नियन्त्रण शक्ति भी विलग कर देता है । क्योंकि वह आवेशात्मक भाव है । आत्मनियंत्रण संयम में ही शान्त अवस्था में ही सुदृढ़ रह सकता है । ये क्रोधादि भाव आत्मा की अपने पर संयम रखने की शक्ति से विचलित कर देते हैं । अतः वह आत्म-विभेदक है । ४. गुरु की शिक्षा को क्रोधी सहन नहीं कर सकता । माता, पिता, शिक्षक आदि लौकिक गुरु, आचार्य, वाचक, रत्नाधिक आदि लोकोत्तर गुरु से क्रोध परे हटा देता है । उन्हें पर मानने की वृत्ति पैदा करता है, उनके प्रति पूज्य बुद्धि पैदा नहीं होने देता है और उनकी संगति में अरति उत्पन्न कर देता है । 'गुरु' शब्द से उपलक्षण से वे सभी पुरुष ग्रहण कर लिये गये हैं जो भी पूज्य हैं । ५. क्रोध आत्मा के भाव धर्म क्षमा आदि का प्रत्यक्ष रूप से नाशक है ही । वह आत्म-भाव में लीनता नहीं होने देता है । क्रोधी जीव को अपने भावों के प्रति ही उच्चाट पैदा होने लगता है । ६. जिन प्रज्ञप्त धर्म कषायों को क्षय करने का मार्ग है । अत: वह उसके प्रति बहुमान पैदा कैसे होने देगा ? वस्तुतः वह जिनधर्म के असली स्वरूप के पास में भी नहीं फटकने देता है । इसप्रकार जिनधर्म से जीव को अति दूर ले जाता है । ७. कोई जीव असंसारी बनें - यह कोई भी कषाय नहीं चाहता । चारों कषायों में आक्रामक क्रोध ही है । अत: क्रोध जीव को भव के उदर में अत्यन्त गहराई में ले जाकर पटक देता है ।