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विषय में मात्र सुनकर ही व्यक्ति को मृत्यु का ज्ञान अनुभव की सीमा तक हो जाता है । इसीप्रकार क्रोधादि के विषय में भी श्रवण करने से ऐसी स्थिति प्राप्त हो सकती है । ३. क्रोध आदि के विषय में जानकारी का मस्तिष्क में संग्रह करना ज्ञान है। श्रवण के बाद यदि ज्ञान का संग्रह - संधारण नहीं हुआ तो श्रवण निष्फल हो जाता है । ४. जाने हुए क्रोधादि के स्वरूप, फल आदि के विषय में सोचनाचिन्तन है । ज्ञान के बाद चिन्तन से ही ज्ञान स्थायी और दृढ़ होता है । ५. संसार में क्रोध आदि से होनेवाली हानियों को देखना दर्शन है । दर्शन के दो प्रकार समीपस्थ और दूरस्थ । समीपस्थ दर्शन चक्षुरिन्द्रिय- गम्य होता है, किन्तु यह अत्यन्त सीमित है । चक्षुरिन्द्रियगम्य दर्शन में भी मानसिक - दर्शन होता ही है । क्योंकि क्रोध मानसिक विकार है । बाहर तो उसके द्वारा होनेवाली दुष्क्रिया मात्र देखी जा सकती है । मानसिक चिन्तन और दर्शन से ही क्रोधकृत भाव प्रत्यक्ष होते हैं । दूरस्थ - दर्शन में मानसिक दर्शन ही होता है । मानसिक दर्शन ही व्यापक होता है और वही अनुभव में परिणत होता है । ५. इह पारत... यह गाथार्ध इस प्रकरण के उपसंहार रूप है । क्रोध के द्वारा होनेवाले दुःख को मोह के कारण जीव देखकर भी नहीं देख पाता है । क्रोध न इस लोक में सुखद है - न परलोक में और जीव ने क्रोध कषाय से अनादि काल से जो दुःख देखे हैं, उसका गणित करना छद्मस्थ की बुद्धि की सीमा के बाहर है ।
वयसि अहे अहे ।
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तुच्छो होऊण कोहेण भो ! सव्वट्ठे नासगं तंपि ता न खिवसि कि अहे ॥६९॥
हे ( जीव ?) (तू) क्रोध से तुच्छ होकर नीचे-नीचे चला जाता है, तो फिर उस सर्व अर्थ के नाशक को ही नीचे क्यों नहीं फेंक देता है ?