________________
( १२४ )
होगा । ४. जमालीजी राजकुमार थे । ग्रन्थों के अभिप्रायानुसार वे संसारपक्ष में भगवान महावीरदेव के भानजे और दामाद थे वे अपार वैभव को त्यागकर भगवान के श्रीचरणों में दीक्षित हुए । परन्तु 'मैं सर्वज्ञ हो गया हूँ और भगवान महावीर के सिद्धान्त की त्रुटि मैंने पकड़ी है'- इस अभिमान से उन्होंने भगवान की आशातना की । अपना मत अलग स्थापित किया । परन्तु भगवान इन्द्रभूतिजी गौतम के प्रश्न से निरुत्तर होकर उन्हें लज्जित होना पड़ा । ५. देव-गुरु की आशातना के कारण रूप मान के कारण भव-परम्परा की वृद्धि होती है और जीव कई भवों तक अवहेलना का पात्र बनता है । ६. मान से मेरी कैसी हीन दशा हो रही है ? -मानी इस बात को न देख पाता है और न सोच सकता है ।
मान में धर्म की हानि --
――
माणो सच्चं ण मण्णेइ, दूरं तत्तं तु खिप्पइ ।
दूरे धम्माउ थंभेइ, खर्णाम्म तं च नासइ ॥ ७१ ॥
मान सत्य को नहीं मानता है । तत्त्व को दूर फेंक देता है । ( जीव को) धर्म से दूर रोक देता है और क्षण में उसको नष्ट कर देता है ।
टिप्पण - १. सत्य की प्रतीति और स्वीकृति धर्म की नींव है । हृदय में स्थित मान सत्य को मानने ही नहीं देता है । अतः जीव मिथ्या बातों और भाव में ही रमण करता रहता है । उन्हें सत्य मानता रहता है । २. तत्त्वज्ञान धर्म का सिंचन करता है । तत्त्वज्ञान के दो कार्य हैं—– हेय - उपादेय का स्वरूप बतलाना और उन्हें त्यागने - ग्रहण करने की विधियुत् लालसा पैदा करना । मान ये दोनों कार्य नहीं होने देता है । वस्तुतः जीव मान के वशीभूत होकर या तो तत्त्व के समीप ही नहीं फटकता है या पुण्ययोग से उपलब्ध तत्त्वज्ञान