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सामूहिकता की हानि -
( ११९ )
करावइ ।
स- कुल-जाइ - रट्ठेसु, संघे भेयं दाहे दुह - दावाए, कोहो मण - विहावसू ॥६४॥
मन की आग रूप क्रोध अपने कुल, जाति और राष्ट्र में तथा संघ में भेद उत्पन्न करता है और दुःख की दावा में जलाता है ।
टिप्पण – १. क्रोधी के हृदय में अपनापन दूर हो जाता है । जिससे वह कुल की शान्ति भस्म कर देता है । परस्पर विग्रह पैदा कर देता है । जैसे कौरव और पाण्डव में महायुद्ध हुआ । २. क्रोध के कारण जाति में विभेद पैदा हो जाता है । जैसे पिछले युग में राजपूत लोग जरा-जरा-सी बात में परस्पर युद्ध में प्रवृत्त हो जाते थे । आज भी कई जन क्रोध के वश अपनी जाति में फूट डालते रहते हैं । ३. क्रोधी मनुष्य अपने देश राष्ट्र का गौरव भी भूल जाता है । जयचन्द ने क्रोध के कारण अपने देश पर आततायी को आक्रमण के लिये आमंत्रित किया और जातीय आक्रोश के कारण भारत - देश का विभाजन हुआ । ४. क्रोध के कारण धर्म-संघ में भी कई बार विभेद हुए हैं । इसके उदाहरणों की कोई कमी नहीं है । ५. विभावसु = प्रकाश रूप वैभववाला - अग्नि । क्रोध मन का विभावसु है । वह व्यक्ति की उष्ण प्रभा को दरसाता है । बाहर की आग से भी यह मन की आग अधिक दाहक है । ६. विभा का आशय शीतल प्रकाश से है । किन्तु अग्नि शीतल प्रकाशवाला नहीं होता है । वैसे ही व्यक्ति समझता है कि क्रोध करके मैं शान्ति प्राप्त कर लूंगा । किन्तु उससे वह जो दुःख-दावानल उत्पन्न करता है, उसमें वह स्वयं भी उस आग में जलता है और कुल आदि को भी उस दुःख- दावानल में दग्ध करते हैं । ७. क्रोध सामूहिक ऐक्य कर्तव्य को विनष्ट करता है ।
पारलौकिक हानि–
अग्गी अत्थेव दाहेs, कोहो पुण भवे भवे । कमढो कोह-भावेण विदड्ढो केत्तिए भवे ॥ ६५॥
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