________________
( ११५ )
टिप्पण-१. पिशाच व्यन्तर जाति के देव होते हैं । लौकिक दृष्टि से पिशाच का उत्पात भयंकर माना जाता है। क्रोध को महापिशाच कहा गया है । २. हृदय शरीर का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भीतरी अंग है । हृदय से ही रक्त का संचार होता है । क्रोध पिशाच उस हृदय पर ही अधिकार कर लेता है । वह उसके रक्त का ही शोषण कर लेता है । अतः शरीर के अन्य अंगों की उसके द्वारा क्या दुर्दशा होती है, इसका अनुमान सहज में ही लग जाता है । ३. क्रोध में हृदय का स्पन्दन तेज हो जाता है । वैसे ही हाथ-पैरों का संचालन भी तीव्र हो जाता है। जैसे देह-प्रविष्ट पिशाच देह को अपने अधीन कर लेता है, वैसे ही क्रोध भी देह को अपने अधीन कर लेता है । ४. वस्तुतः क्रोध कार्मण शरीर से स्थूल शरीर में व्याप्त होता है । उससे समस्त आत्मप्रदेश कंपायमान हो जाते हैं। ५. पिशाच अपने अधीन जीव को जल्दी नहीं छोड़ता है और उसे बेभान करके उससे विचित्र चेष्टाएँ करवाता है, वैसे ही क्रोध भी जीव की दुर्दशा करता है। ६. यहाँ क्रोध को महापिशाच की उपमा उसकी भयंकरता बतलाने के लिये दी गयी है । क्रोधाभिभूतता मोहावेश है और पिशाचाभिभूतता यक्षावेश है । सैद्धान्तिक दृष्टि यक्षावेश की अपेक्षा मोहावेश अत्यन्त भयंकर है । यक्षावेश सरलता से दूर हो जाता किन्तु मोहावेश नहीं । यह 'दुविमोयतर' है । क्योंकि यक्षावेश मात्र शरीरगत होता है, जबकि क्रोधावेश आत्मगत । ७. क्रोधावेश के लिये पिशाचावेश की उपमा हल्की पड़ती है। किन्तु लोक में पिशाचावेश की अतिभयंकरता प्रसिद्ध है और उसका नाम सुनकर ही लोग त्रस्त हो सकते हैं । अतः लोग क्रोधावेश की भयंकरता इस उपमा से सहज ही समझ सकते हैं और आत्मा भी इस स्थल उदाहरण से क्रोध की हानिरूपता को समझ सकता है । ८. क्रोध से अनेक शारीरिक हानियाँ होती हैं ।