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प्रफुल्ल ने गुरुजी से आज्ञा लेकर, मुनिराजों को मालवा के बड़े नगर तक पहुंचाने के लिये उनके साथ गया ।
मुनियों का मालवा की सीमा में प्रवेश हुआ । वे उज्जैन की ओर आगे बढ़ रहे थे । उज्जैन तक कोई-कोई गाँवों में ही जैनों की बस्ती थी। मुनि जिस गाँव में ठहरे थे, वहाँ से आगे आहार का पूरा योग बैठने जैसा नहीं था । इसलिये प्रातः काल में विहार के समय कुछ आहार का योग बैठा तो साथ ले लिया । मुनियों के लिये वह आहार नाश्ते के लिये भी पर्याप्त नहीं था । मुनिजन आगे बढ़ें।
मर्यादित क्षेत्र में मुनियों ने आहार किया । प्रफुल्ल को यह अच्छा नहीं लगा । बहुत बुरा लगा उसे । उसने सोचा- “ कैसे हैं ये मुनि ! बस, पेट भरे हैं ये ! इन्हें अपना ओज-तेज बताना होगा ।" वह मुनियों के साथ चल रहा था - मन में गुस्सा भरे हुए । वह कुछ रोब जमाते हुए बोला - “ आप कैसे त्यागी साधु हो ?"
आश्चर्य से मुनि बोले – “भाई !
क्यों- क्या हुआ ?"
वह कुछ तैश में जरा तीखे स्वर में बोला – “आप अकेले ही माल उड़ा गये ! मैं भूखा ही बैठा रहा ! आपके गले उतरा कैसे ?"
मुनि ने शान्त स्वर में कहा - " भाई ! तुम अभी हमारी श्रेणि में नहीं आये हो ! तुम खुले हो ! तुम पर कुछ प्रतिबंध नहीं है । गृहस्थों को आहार देने का हमारा कल्प नहीं है - यह क्या तुम नहीं जानते हो ?"
वह लाल आँखों से मुनियों की ओर देख रहा था । जिसमें ये भाव भरे हुए-से थे- 'ओह ! आये बड़े कल्पवाले ! '
उज्जैन के समीप के ग्राम में मुनियों ने रात्रि-वास किया | उज्जैन से कोई भी उपासक खोज-खबर लेने नहीं आया । यह बात प्रफुल्ल वैरागी को खटकी। वह कोई बात का प्रसंग पाकर बोला- “ मालवा के लोग ऐसे ही हैं । कुछ भी भाव-भक्ति नहीं है । कुत्ते हैं - कुत्ते !”