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मठारने आदि की क्रियाएँ स्वच्छता और सजाने, सँवारने, फैशन करने आदि की क्रियाएँ श्रेष्ठ सभ्यता लगती हैं । २. अपने में सत्क्रिया के न होते हुए भी उसकी दिखावट करना या सत्क्रिया का अभिमान करना क्रियाभ है । यह सुखरूप और दक्षता प्रतीत होता है । ३. - व्यक्ति इनका बहुमान करता है इसलिये उन्हें 'विराजमान होते हैं यह कहा है ।
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सच्चस्सागह-रूवेण, पण्णा-मओ पयट्टइ । चरित - होलणा कंती, धिट्ठया उजुआ वरा ॥५६॥
कलहो वीरया वाओ, पंडितं संगहो पिया । उवओगी ति सोहिज्ज, दिट्ठि विपरियासयं ॥५७॥
प्रज्ञामद सत्य के आग्रह रूप में परिवर्तित हो जाता है । चरित्र की अवहेलना क्रान्ति, धृष्टता श्रेष्ठ ऋजुता, कलह वीरता, वाद पाण्डित्य और संग्रह पिता-सा उपयोगी रूप में ( अच्छा ) लगता है । ( चिन्तन के द्वारा ) इस दृष्टि विपर्यासता का शोधन करना चाहिये ।
टिप्पण - १. श्रुतमद के ही अंश रूप में प्रज्ञामद है । निष्पक्ष चिन्तक के रूप में प्रतिष्ठित होने की लालसा जाग्रत होने पर प्रज्ञामद प्रकट होता है । जिससे श्रद्धा का भाव गौण हो जाता है और सत्य - शोध का आग्रह पैदा होता है । सत्यान्वेषण यद्यपि साधक के लिये आवश्यक है, फिर भी उसे अपनी बुद्धि की सीमा समझना चाहिये । अतीन्द्रिय पदार्थों में सत्यान्वेषण के नाम पर दुराग्रह उत्पन्न हो जाता है । उस स्थिति में अपनी अल्पप्रज्ञा को पूर्ण प्रामाणिक मानने के कारण उसका उन्माद उत्पन्न होता है । जिससे सत्य - आग्रह के नाम पर सत्य की ही अवहेलना होने लगती है । यही प्रज्ञामद का सत्याग्रह रूप में परिवर्तित दृष्टि - विपर्यास है । २. नैतिक नियम और चरित्र