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( १०७ ) एक मुनि ने टोंका-“ऐसा मत बोलो। तुम वैरागी हो?"
"मैं क्या कहूँ ? वसुमुनि कह रहे थे । भक्ति कुछ नहीं । काटने दौड़ते हैं !" "वैरागी को ऐसा नहीं बोलना चाहिये। कोई भी ऐसी बात बोले; अनुचित है।" ।
उज्जैन गये। एक श्रेष्ठी के घर भोजन करने गया। भोजन पीतल की थाली में परोस दिया गया। पारा एकदम ऊँचा चढ़ गया। भोजन किया, न किया और लाल-पीला होता हुआ स्थानक पहुंचा। चेहरा तमतमाया हुआ था। वह बड़बड़ा रहा था। मुनियों ने सुना"मालवा के लोग टुच्चे हैं । क्या मैं हीन जाति का हूँ-गरीब घर का बेटा हैं, जो पीतल की थाली में भोजन परोसा?"
एक मनि बोले-"भाई ! शान्त होओ। पीतल की हो या सोने की-थाली तो थी ही न ! जैसी जिसके घर की रीत ! करना भोजन था। फिर थाली किसी भी धातु की हो, क्या फर्क पड़ता है ?"
"मनोवृत्ति का फर्क पड़ता है। ऐसे स्वाभिमान-आत्मगौरव खोकर मैं नहीं रह सकता। मैं आज ही जाऊँगा !"
स्पष्टीकरण-प्रफुल्ल को धनिक-पुत्र के दिखावा रूप माया अपने व्यक्तित्व की सुरक्षा, भोजन का लोभ हितैषी, क्रोध ओज और मान अपने हितैषी या तेज रूप में प्रतीत हुआ । इसप्रकार कषाय से वासित हृदयवालों का वैराग्य वास्तविक नहीं होता है। चिन्तन-निरीक्षण
काऊण सुहुमं बुद्धि सुद्धं चितिज्ज पासगो । पवित्तीए कसायस्स, तया भासइ वक्कया ॥५४॥
पश्यक =दृष्टा (आत्मा) बुद्धि को सूक्ष्म करके शुद्ध रूप से चिन्तन करे। तब प्रवृत्ति में कषाय की वक्रता भासित होती है।