________________
( १०५ )
पाप का फल समभाव से भोगना है। ७. कषायों में ओज आदि भावों का आरोपण होने पर वे पुष्ट ही होते हैं-बढ़ते ही हैं; किन्तु दुर्बल और अल्प नहीं होते। यदि ये भाव कषायों में आरोपित हो रहे हों तो जाग्रत-प्रामाणिक चौकीदार के समान आलोकन के द्वारा लबादा औढ़कर आये हुए इन कषायों को पहचान लेना चाहिये । ८. सम्यग्दृष्टि आत्मा त्याग नहीं कर पाने पर भी और संसारी में अव्रत में रहते हुए भी इन कषायों का पक्षपाती नहीं होता है । उसे कषाय आत्मधन के लुटेरे ही लगते हैं। देशविरत साधक कषाय के बीच रहते हुए भी उन्हें आत्मा को भव में भटकानेवाला ही मानता है। अतः सर्वविरत साधक को तो कषायों से सावधान रहना ही चाहिये। ९. साधक की थोड़ी गफ़लत भी घातक हो जाती है। जैसे युद्धभूमि में या उठाईगीरों के बीच जरा-सा प्रमाद प्राणलेवा और धन-हरण का हेतु बनता है, वैसे ही कषाय-भाव के निरन्तर उदय में क्षण मात्र का अल्प-सा प्रमाद भी घातक हो जाता है।
ओजस्वी! तेजस्वी !
प्रफुल्ल भाटी मुनियों के संपर्क में आया। उसका मन दीक्षा लेने का हुआ। वह वैरागी रूप में मुनिजी के पास रहा । मुनि राजस्थान की सीमा के गाँव में स्थिरवास थे ।
प्रफुल्ल नवयुवक ही था। खाते-पीते घर का कुमार था। वह हंस-धवल उज्ज्वल वेश पहनता था। वह गले में सोने की चैन डाले हुए था और आधी चैन कुर्ते के बाहर और आधी कुर्ते के भीतर रखता था। वह बाहर झांकती चैन यह बताती रहे कि यह वैरागी गरीब घर का नहीं है। उसकी मुख-मुद्रा गर्व के भाव मण्डित आकर्षक थी। वह कड़कते स्वर से बोलता था। ___ एक मुनिदल राजस्थान से मालवा की ओर जा रहा था। वे उसी गाँव में आये। मुनियों ने कुछ दिन वहाँ रहकर विहार किया।