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करण और अपादान ही हैं । ४. आलोकन के द्वारा कषाय को सही रूप में पहचानकर, उसे भली भाँति अपना अहितैषी जान लेना और चिन्तन के द्वारा उस भाव को पुष्ट करते हुए कषाय-- प्रेरित प्रवृत्तियों का दृढ़तापूर्वक निर्णय करना --- दृढ़ संकल्प करना ।
सावधानी से आलोकन करो-
आलोयणं कुणतो णो, पक्खवायं करेज्ज भो ! कोहो ओय हु माणो वि, दीसइ अप्प - गोरवं ॥ ५२ ॥
माया पईयए रक्खा, लोहो महु-हिएसिणो । तम्हा अप्प-पमाएणं, कसाओ हिंसए गुणे ॥५३॥
हे आत्मन् ! आलोकन करते हुए पक्षपात नहीं करना ! (क्योंकि) क्रोध निश्चय ही ओज रूप में और मान भी आत्म गौरव के रूप में दिखाई देता है । माया (आत्म - ) रक्षा और लोभ मीठा हितैषी रूप में प्रती होता है । इस कारण कषाय अल्प प्रमाद में भी ( आत्मा के ) गुणों की घात करता है।
टिप्पण - १. जीव आलोकन करते हुए पक्षपात कर सकता है । उसे अपने आपके प्रति अत्यधिक राग रहता है । दोष अपने होते हैं । अतः उनमें राग होना कोई अनहोनी बात नहीं है । जिसमें राग होता है उसमें पक्षपात होता ही है । २. दोषों में राग होने पर उनका आलोकन निष्पक्ष रूप से नहीं हो सकता है । अतः वे गुण रूप में ही दिखाई देते हैं । क्रोध ओज- अपने तेज की वृद्धि में हेतु रूप प्रतीत होता है । क्रोध से मनुष्य अन्य को प्रायः दबा देता है । लोग अपनी शान्ति की सुरक्षा के लिये उससे विवाद नहीं करते हैं- भय खाते हैं । अतः क्रोधी को लगता है कि मेरे क्रोध के कारण ये सभी दब गये हैं । क्षमा, शान्ति से अपनी उपेक्षा होते देखकर भी क्रोध परमशक्ति