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के रूप में भासित होने लगता है । ३. मान में व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की सुरक्षा और बड़प्पन की वृद्धि दिखाई देती है । समाज में विनम्र मनुष्य की अवहेलना होती हुई देखी जाती है । जो अपनी महिमा बढ़वाता है, वह समाज पर छा जाता है— इतिहास में आलेख्य पुरुष बन जाता है । अतः मान के अभाव में गौरव की हानि दिखाई देती है और मान आत्मगौरव के रूप में ही लगने लगता है । ४. मायी जीव छल-कपट से अपना बचाव कर लेता है । अपने दुर्गणों को पूर्णत: छिपा लेता है और ढोंग, माया जाल की रचना करके लोक में पूज्य पुरुष बन जाता है । अतः साधक को माया सुरक्षा की ढाल - चातुर्य के विस्तार सदृश प्रतीत होने लगती है । ५. लोभ अर्थात् चाह- इच्छा से इष्ट पदार्थों का संयोग होता हुआ दिखाई देता है । संतोषी अकर्मण्य - हतभागी -सा अवहेलित होता है । जो इच्छा करता है वह जनसमुदाय और प्रकृति का दोहन करके अपने भण्डार को भरता है। बिना लोभ के उद्यम की प्रेरणा ही नहीं मिल सकती । संसार का अधिकतम विकास और व्यवहार लोभ की आधार शिला पर ही टिका हुआ है । अतः लोभ से बढ़कर मधुर और हितैषी और कौन है ? ५. ये भाव संसार के पक्ष से उत्पन्न होते हैं । संसार दुर्गुणों से उत्पन्न होता है और दुर्गुणों से ही चलता है । अतः संसारापेक्षी दृष्टि कषाय को महत्व देगी ही । साधक को यह समझ लेना चाहिये कि वह संसार का चलनी सिक्का नहीं है । वैराग्य आते ही जीव संसार के लिये खोटे सिक्के जैसा ही बन जाता है । यद्यपि - संसार त्यागियों की पूजा करता है, फिर भी उनके पास त्याग की कोई - कसौटी नहीं होती है । इसलिये अधिकांश संसारी जीव प्रायः त्याग के ढोंगियों को ही पूजते हैं। सच्चे त्यागी लोकैषणा से निरपेक्ष रहते हैं । ६. ओज, सुरक्षा, गौरव, यश आदि की उपलब्धि पुण्य के फल हैं । ये कभी भी कषाय-जनित नहीं हो सकते हैं। हाँ, कषाय की मंदता में तथारूप भावों से वे प्रकृतियाँ बंध सकती है । साधक को पुण्य का फल भी त्यागना है- उसकी वांछा भी नहीं करना है और