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पकड़ना चाहिये। क्योंकि कषायों को पहचानना सरल नहीं है । फिर अन्तरङ्ग में उपयोग मोड़ना और अपने ही दोषों को देखना और कठिन है । निरीक्षण की प्रेरणा
कसायं चेव कसायं, जाणेज्ज य धरिज्ज य । णिच्चं तस्सोर्वारं दिट्ठि, कुज्जा तं च परिक्ख ॥ ४८ ॥
कषाय को कषाय रूप से ही जानें और ( उसे बुद्धि से ) पकड़ें । उसके ऊपर सदैव दृष्टि रखें और उसको परखें ।
टिप्पण - १. निरीक्षण - विधि के अंग-ज्ञप्ति, धृति, अन्तरदृष्टि, जागृति और परीक्षण । ज्ञप्ति = जानकारी । धृति: - धैर्य सहित प्रज्ञा के द्वारा यथार्थ पकड़ । अन्तरदृष्टि = अपनी दर्शन-क्रिया को अपनी ओर मोड़कर अन्तर्मुख करना । जागृति अपने आप पर अपनी चौकीदारी । परीक्षण = गुण दोष का विवेक । २. कसायं चैव कसायं अर्थात् 'और कषाय रूप में ही कषाय को' । च = और शब्द से यह ध्वनित होता है कि किसी अन्य पदार्थ को भी कषाय के साथ जानना है-या जाना जाता है । वह हैचैतन्य । चैतन्य और कषाय दोनों का स्वरूप जानना - यह आशय है । एव - ही - इस शब्द से यह भाव प्रगट होता है कि कषाय आत्मा की विकारी पर्याय को विकारी पर्याय के रूप में ही जानना है । कषाय में स्थित राग - बुद्धि का परिहार करने पर ही उसका यथार्थ रूप जाना जा सकता है। चैतन्य की शुद्ध पर्याय और उसमें विपर्यय नहीं होना चाहिये । यह कषायज्ञप्ति की विधि है । ३. 'शुद्ध चैतन्य से भिन्न कषाय रूप में ही मुझमें विकारी वृत्ति है - इसे बुद्धि में दृढ़ता से धारण करना - यह कषाय धृति है । कदाचित् यह वृत्ति पकड़ में न आये - अन्तरङ्ग में दब जाये तो अपना धैर्य नहीं खोना । क्योंकि उसपर दृष्टि जमाने से वह वृत्ति लुप्त हो जाती है । ४. कषायों में गुणबुद्धि हो जाती है । अतः परीक्षण करना - आवश्यक रहता है। ज्ञान आदि पाँचों अंगों के मिलने पर निरीक्षण - क्रिया की पूर्णता