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होता है क्या? मैंने इसे कभी दर्शन करने आता भी नहीं देखा । अभी-अभी कुछ दिनों से ही इसे आते देखा है । वह प्रवचन में भी बैठता है । सुनता भी है मन लगाकर । किन्तु मुनिजी ? आज की उच्च शिक्षा प्राप्त आधुनिक विचारों का नवयुवक है। इसके हृदय में अचानक ही वैराग्य के अंकुर कैसे निकल आये ?"
"गुरुदेव ? यह जन्मा तो जैनकुल में ही है । आपके प्रवचन प्रशम-रस से भरपूर है। किसी अजैन को भी वैराग्य आ सकता हैऐसे हैं । तो फिर इसे वैराग्य क्यों नहीं आ सकता है ?" ___"आ सकता है-इससे मैं इन्कार नहीं करता हूँ। परन्तु युगवीर
के हृदय में वैराग्य जागा है-इसमें संदेह है।" ___"गुरुदेव ! मैंने उसे कुछ भी उपदेश नहीं दिया। उसने स्वयं ही अपने भाव प्रकट किये हैं। वह उच्च शिक्षित युवक है । उसका दीक्षित होना हमारे संघ के लिये प्रभावक हो सकता है। फिर भी मेरा न तो उसके प्रति कुछ मोह है और न कुछ आग्रह है । जैसा गुरुदेव फरमायें, वैसा उत्तर उसे दे दूं।" ___गुरुदेव मसकराये । कुछ क्षण मौन रहकर बोले-“मुनिजी ! तुम्हारी भावना सुन्दर है । उसे ज्ञान सिखाने में कोई हानि नहीं है। अभी युगवीर को ज्ञान सिखाओ। फिर समय पर जो होगा सो देखा जायेगा । उसे यह कह देना कि वह अपने हृदय के भाव अपने तक ही सीमित रखे।"
युगवीर ज्ञानार्जन करने लगा। वह ज्ञान सीखने गुरुदेव के चरणों में ही बैठने लगा । गुरुदेव भी उसकी वैराग्यवृत्ति देखकर दुविधा में पड़ गये। फिर उन्होंने सोचा-'भगवान महावीरदेव तो सर्वज्ञ थे। वे जानते थे कि जमालीजी निह नव हो जायेंगे । फिर भी उन्होंने उन्हें दीक्षा दी ही । अब मैं य गवीर को दीक्षा देने से इंकार नहीं कर सकता हूँ। इसमें संप्रति जो जिनशासन-चरित्र धर्म के प्रति उल्लासभाव प्रकट हुआ है, यह उसके लिये तारक है-उपादेय है। फिर भावी भाव को तो कौन रोक सका है।'