________________
( ८९ )
इच्छाओं में कोई भौतिक भाव जुड़ जाता है, तब वे मोह-जनित हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में वे भी लोभ हो जाती हैं ।
लोभ की परिभाषा में मतान्तर --
केइ उ इच्छमेत्तं ति, भवस्स वा सिवस्स वा । लोभं मण्णंति जं किंचि, पत्थणाएऽणुरंजणं ॥३४॥
कई तो इच्छा मात्र को लोभ मानते हैं, चाहे वह भव से, चाहे मोक्ष से संबन्धित हो। क्योंकि ( इनके मतानुसार ) जो कुछ भी माँग से अनुरञ्जित भाव है, वह लोभ है ।
टिप्पण - १. जैनधर्म में एक अध्यात्मवादी प्रशाखा भी है । उसके मतानुसार मोक्ष की इच्छा भी लोभ ही है । वह लोभ मोहनीय के उदय
ही होती है । मोक्ष की इच्छा को लोभ मानने पर 'मोक्ष के साधक कारणों की इच्छा' भी स्वतः ही लोभ सिद्ध हो जाती हैं। क्योंकि इच्छा में माँग का भाव व्याप्त रहता है और माँग आकुलता उत्पन्न करती है । आकुलता मोह के क्षयोपशम से उत्पन्न नहीं हो सकती । इसलिये इच्छा मात्र ही लोभ है । यह इस मत की विचार - पद्धति है । २. पूर्व मत के अनुसार इच्छा मात्र से आकुलता होना सही नहीं है । जैसे ज्ञानाभ्यास की इच्छा से आकुलता नहीं, उत्साह उत्पन्न होता है । उत्साह - वीर्य वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है और वह सत्पुरुषार्थ में परिणत होता है । अत: वह इच्छा लोभ नहीं है और आकुलता मात्र मोह - जनित नहीं होती है क्योंकि ज्ञान की अल्पउपलब्धिया अनुपलब्धि में जो आकुलता होती है, वह पश्चाताप रूप होकर आत्मनिंदा और ग में परिणत हो जाती है । आत्मनिन्दा और गर्हा से मोह का नाश होता है, बन्ध नहीं । ३. मोक्ष की इच्छा को भी यदि लोभ माना जायगा, तो सम्यक्त्व के एक लक्षण 'संवेग' का ही अभाव हो जायगा । वस्तुतः सम्यक् पुरुषार्थ का प्रारंभ ही संवेग से होता है । संवेग से मोह का बन्ध नहीं होता । प्रत्युत अनन्तानुबन्धी- चतुष्क का क्षय होता है । तीव्र
।