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संवेग ही क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति का हेतू है। ४. लोभ के अभाव के साथ ही संवेग निवृत्त हो जाता है। अतः संवेग भी लोभ-जनित ही हुआ। यह कहना भी उचित नहीं। क्योंकि लोभ के क्षय के बाद समस्त घाती कर्मों का क्षय हो जाता है। फिर उसका कोई कार्य नहीं रहता। इसलिये वह निवृत्त हो जाता है। क्योंकि केवलज्ञान होने पर मति, श्रुत आदि ज्ञान निवृत्त हो जाते हैं। अतः उन्हें ज्ञानावरणीय-जनित कहना अनुचित है, वैसे ही संवेग को भी लोभ रूप मानना अनुचित है। लोभ की क्रियाएँ
पाउन्भूओ उरे लोहो, तं सिणेहम्मि बोलइ । आशंसा-वासिए जोगे, कटु अट्टं झियावइ ॥३५॥
हृदय में प्रकट हुआ लोभ उस (हदय) को स्नेह = आसक्ति रूप भाव मैं डुबा देता है और योगों को आशंसा से वासित करके आर्तध्यान करवाता है ।
टिप्पण-१. लोभमोहनीय सत्ता से चलायमान होकर अन्तरङ्ग में व्याप्त होता है। अतः आत्मा लोभमय बन जाता है। जिससे तीन क्रियाएँ होती हैं-स्नेहसिक्तता, आशंसायोग और आर्तभाव। २. स्नेह अर्थात् तैल, चिकनाहट। आत्मगत चिकनाहट आसक्ति है। लोभ से वस्तुओं से चिपटने की वृत्ति आत्मा में पैदा होती है। ३. आशंसायोग अर्थात् आसक्ति से वासित वीर्योल्लास। जिससे मन में वस्तु की आशंसा-चाहना उत्पन्न होती है। वचन से विविध प्रकार वाक्य-रचना से वह आशंसा अभिव्यक्त होती और तद्रूप आत्मचेष्टा से काया में आशंसा से युक्त क्रिया-चेष्टा का प्रादुर्भाव होता है। मुंह का वर्ण बदलता है, कम्पन में वेग होता है आदि । ४. आर्तभाव अर्थात संयोग-वियोग-अभाव-जनित आकुलता का भाव । आर्तभाव गहरा होता है तो वह आर्तध्यान हो जाता है। वस्तु का प्राप्त नहीं होना अभाव है। प्राप्त होकर हाथ से निकल जाना वियोग और प्राप्त