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६. लोभ के स्तरों की पहचान क्रमश: असंतुष्टि, अल्पतुष्टि, विशेषतुष्टि और त्वरिततुष्टि है । यद्यपि यह पहचान एकदम निश्चित नहीं है, फिर भी साधनामार्ग की दृष्टि से यह बहुत ही उपयोगी है। निश्चित बात तो अतिशयज्ञानी ही जान सकते हैं । साधक को तो टटोल कर ही चलना है । लोभ की योनि आदि
जोणी लोहस्स लोहो हि, दोसाण नायगो पिया । पिवासा ममया जम्हा, दोसा लोहे हए हया ॥४०॥
लोभ की योनि लोभ ही है । वह दोषों का नायक और पिता है । - जिस (लोभ) से पिपासा - आशा, तृष्णा और ममता बनी रहती है, (उस) लोभ को नष्ट होने पर सभी दोष नष्ट हो जाते हैं ।
टिप्पण - १. तीन कषाय ( क्रोध, मान, माया) लोभ की उत्पत्ति में निमित्त नहीं बनते हैं। बाहरी करिण तो लोभ की उत्पत्ति में कई हो सकते हैं । परन्तु आभ्यन्तर कारण कोई ध्यान में नहीं आता है । अतः लोभमोहनीय का उदय ही लोभ का हेतु है । २. दोषों का नेता - अगुआ लोभ है। लोभ के साथ अन्य दोषों की कतार चलती है । ३. लोक दृष्टि से लोभ ही पापों का बाप है । वस्तुतः लोभ के अस्तित्व में ही समस्त दोष पनपते हैं । जब समाज में देश में लोभ का वर्चस्व बढ़ता है, तब नैतिक मूल्यों का पतन हो जाता है । ४. लोभ के उदय में कुछ न कुछ पाने की प्यास बनी ही रहती है और ममता तीव्र होती जाती है अर्थात् लोभ में जीव सदैव अशान्त रहता है । चाह है तो जीव गुलाम है और चाह नहीं है तो शाहंशाह । ५. दोष दो प्रकार के हैं-लोभ से पनपनेवाले और उसकी छत्रछाया में रहनेवाले। सभी दोषों को इन दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । मोहजनित समस्त दोष लोभ के अस्तित्व तक ही रहते हैं और उन्हें लोभ के नष्ट होने के पहले ही नष्ट होना पड़ता है । शेष घातीकर्म से उत्पन्न दोष लोभ के क्षय होने के बाद अधिक समय तक