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होना-प्राप्त होकर बने रहना संयोग है। तीनों अवस्थाओं में लोभ-जनित आर्तभाव चलता रहता है। ५. कभी-कभी लोभ के निमित्त से रौद्रभाव भी प्रकट हो सकता है। वस्तुतः आर्तभाव के आगे रौद्रभाव खड़ा ही रहता है। परन्तु वह प्रायः जन-प्रतिक्रिया के निमित्त से होता है अथवा वह आर्तभाव की उत्तर अवस्था होती है। इसीलिये उसे 'आर्तध्यान' के उपलक्षण से ग्रहण किया है। लोभ की अनुक्रियाएँ
लोहस्साणुकियाओ उ, पंचासवाण उन्भवो । किविणया अविस्सासो, धर्ट दिण्णं अपारया ॥३६॥
लोभ की अनुक्रियाएँ पञ्चास्रवों का उद्भव, कृपणता, अविश्वास, धृष्टता, दैन्य आदि अपार हैं।
टिप्पण--१. लोभ की समस्त अनुक्रियाओं का गिनाना सहज नहीं है। इसलिये उन्हें अपार कह दिया है। २. प्रमुख नव अनुक्रियाएँ गिनाई हैं-१. प्राणातिपात, २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४. मैथुन और ५. परिग्रह-ये पाँच अनुक्रियाएँ आशंसायोग-जनित हैं। ६. कृपणता और ७. अविश्वास-ये दो अनुक्रियाएँ स्नेहसिक्तता-जनित हैं। ८. धृष्टता और ९. दैन्य-ये दो अनुक्रियाएँ आर्तभावजनित हैं। ३. जब योग आशंसा से वासित होते हैं, तब वे सावद्य--पापभाव से युक्त हो जाते हैं। अतः उनसे पाँच आस्रव रूप पाप होने लगते हैं। ४. स्नेह सिक्तता से पदार्थों को पकड़ रखने की भावना उत्पन्न होती है। जिससे दो भाव प्रकट होते हैं-कृपणता= कंजूसी और किसी पर भी विश्वास नहीं करना। ५. आर्तता से इष्ट-संयोग में धृष्टता और अभाव और वियोग में दीनता प्रकट होती है। इनके सिवाय लोभ की आशा, तृष्णा, वांछा, काम आदि कई क्रियाएँ और दुष्टता, शठता, मूढता, एषणात्रय, शृंगार, क्रय, विक्रय, विभूषा आदि अनेक अनुक्रियाएँ हैं। ६. अनुक्रियाओं के वर्णन में क्रम-भंग गाथा की दृष्टि से सहज में ही हुआ है।