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बन्धी माया । इसमें अत्यधिक वक्र वृत्तियाँ एक दूसरे में उलझी हुई और मूलधारा का गोपन करती हुई-सी रहती हैं । जैसे वंशमूल की वक्र जड़ों को सीधी करना संभव नहीं है, वैसे इस प्रकृति से उदयाविष्ट जन की वक्रता - छलवृत्ति को हरना संभव नहीं है । २. मेंढे की सिंग वंशमूल से अल्प वक्र होता है। उसमें परस्पर उलझे हुए और आच्छादक मोड़ नहीं होते हैं । फिर उनमें गोलाई काफी होती है । वैसे ही अप्रत्याख्यानी माया में वक्रता और छल की अल्पता होती है । स्वभाव में सुलझाव आ जाता है । अपने दोष दृष्टिगत होने लगते हैं । भवतारक तत्त्वों के प्रति वक्रता और वञ्चना का प्रायः अभाव हो जाता है । ३. गौमूत्रिका अर्थात् चलते हुए बैल के पेशाब करने से बने हुए मोड़ । मेंढे के विषाण से उसमें वक्रता और आच्छादकता अल्प होती है । उसमें किसी के उलझने की संभावना नहीं रहती है । वह आर्द्र रहती है, वहीं तक वह वक्रता दिखाई देती है । सूखने के कुछ समय बाद धूल में बने हुए वक्र चिह्नों का भी अभाव हो जाता है। वैसे ही प्रत्याख्यानी माया में वक्रता और छल की न्यूनता हो जाती है । जीव उसमें न स्वयं उलझता और न किसी को उलझाता है । परन्तु वह अपनी, अपने आश्रितों आदि की सुरक्षा आदि के लिये वक्र व्यवहार और छल करता है । इस माया के निमित्त कारण अधिक लम्बे समय तक नहीं रह पाते । अतः माया भी कारणों के हटते ही मिट जाती है । स्वभाव में रहा अल्पांश भी क्रमशः समाप्त हो जाता है अथवा इस माया के उदय से बँधा हुआ माया रूप कर्म भी लम्बी स्थितिवाला नहीं बंधता । ४. चौथी प्रकार की वक्रता बाँस की चिपट की है । बाँस की चिपट को दोनों किनारों से मोड़कर पकड़ रखने पर ही उसे मात्र एक ही मोड़ बनता है । वह भी पकड़वालों हाथों से छूटने के लिये जोर मारता है । किनारे छोड़ देने पर अत्यल्प वक्रता शेष रहती है, जिसे अत्यल्प प्रयत्न से दूर किया जा सकता है। संज्वलनमाया भी वैसी ही होती है । इसमें न तो वक्रता रहती और न आच्छादकता ही । परन्तु किसी प्रबल निमित्त से कदाचित् वक्रता और छल का प्रवेश हो जाता है तो जीव उसीके वशीभूत होकर भी ऋजुता से एकदम मुक्त नहीं होता है। उसके हृदय में माया का भान बना रहता है ।