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अर्थात आत्मा में तद्रूपभाव उत्पन्न होते हैं और फिर योगों से तत्प्रेरित क्रियाएँ होती हैं । जिससे आत्मा में पुनः मायामोह रूप कर्मदलों का आकर्षण होता है और आत्मा से बद्ध हो जाते हैं। इसप्रकार माया से मायारूप कर्म-बन्ध की प्रक्रिया होती हैं। यह पहला आशय है। ३. जब लोगों को माई का माया-व्यवहार ज्ञात होता है, तब उन्हें उसके प्रति घृणा उत्पन्न होती है। जिससे वे भी उसके प्रति मायामय व्यवहार करने के लिये प्रेरित होते हैं। यह दूसरा आशय है । ४. जब तक लोग मायी के व्यवहार से मुग्ध रहते हैं, तभी तक वे उसका विश्वास करते हैं । परन्तु माया के प्रकट होने पर उस पर अविश्वास रूप प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। जिससे मायी और माया करता है। ५. जैसे लोग साँप से डरते हैं, वैसे ही छली से भी डरने लग जाते हैं । अत: वे साँप से दूर भागने के समान उससे भी दूर भागते हैं । ६. मायी को लोग मित्र रूप में देख ही नहीं पाते हैं । वह उन्हें शत्ररूप ही प्रतीत होता है। अतः उसे उनकी प्रीति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती । ७. इसप्रकार माया से माया, अविश्वास, भय, अप्रीति आदि प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। माया के स्तर की पहचान
वंसीमूलो वक्का, जह मेंढविसाणओ य गोमुत्ती । अवलेहणिया एवं, कमसो गइदाइणी माया ॥३०॥
जैसे बाँस की जड़, मेंढे का सींग, गौमूत्रिका और अवलेहनिका= वंश शलाका वक्र होती है, वैसे ही (चार प्रकार की) माया क्रमशः (चार प्रकार की) गति--प्रदायिका होती है।
टिप्पण-१. अनन्तानुबन्धी आदि चार प्रकार की माया के स्तर को समझने के लिये चार प्रकार की वक्र वस्तुओं से उपमा दी गयी है । बाँस की जड़ अत्यधिक वक्र होती है। उसमें छोटी-छोटी जड़ें टेढ़ी-मेढ़ी होकर परस्पर उलझी रहती हैं । वे मूल जड़ से निकलकर उसे इतना आच्छादित कर देती हैं कि वह अदृश्य-सी हो जाती हैं । ऐसी ही होती है-अनन्तानु