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होती हैं-शान्तिरूपा और क्रान्तिरूपा । छलमाया के मूल में शान्ति रूपा
और वक्रता-माया के मूल में क्रान्तिरूपा क्रिया होती है। २. शान्तिरूपा क्रिया में शान्ति और शान्ति-कुल के अधिकांश भावों का अभिनय होता है। क्रान्ति अर्थात् जोश के साथ जन-हितैषी परिवर्तन लाने की प्रहारात्मक क्रिया । क्रान्तिरूपा क्रिया में क्रान्ति और क्रान्ति-पोषक भावों का वेदन किया जाता है। ३. छलरूप मायिक प्रवृत्ति में आत्मा अपने को अन्य जनों के हितैषी के रूप में प्रदर्शित करता है और वक्रतारूप मायिक प्रवत्ति में अपने को सर्वशक्ति-सम्पन्न सत्ता के रूप में । जब परमयश की उत्कट चाह होती है और अपनी शक्ति-सम्पन्नता की धाक जमाने की भावना होती है, तब हित-अन्वेषण और परमैश्वर्य के अभिनय रूप दो अनुक्रियाएँ होती हैं । शान्तिक्रिया से होनेवाली अनुक्रियाएँ
मिउ-महुर-भासी सो, पसण्णो अज्ञवागरो । विणीओ कप्पणीतुल्लो, हियए रमए मिए ॥२७॥
(बाहर प्रवृत्ति में) वह (मायी) मृदु और मधुर भाषी, प्रसन्न (हर्ष से विकसित मुखवाला), आर्जव की खान, विनीत और हृदय में कैची के सदृश भाववाला मग के समान (भोला बनकर) खेल खेलता है।
टिप्पण-१. प्रवृत्ति में मदुता, मधुरता, मदु-मधुर-भाषण, प्रसन्नता, आर्जव, विनय और भोलापन तथा अन्तरङ्ग में अन्य को काटने के भावये माया की पोषिका प्रमुख अनुक्रियाएँ हैं । ये शान्ति के अभिनय को सफल बनाती हैं। २. शान्ति से अन्य को काटने के भाव उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु माया-जनित शान्ति वास्तविक शान्ति नहीं होती है। यह अन्तरङ्ग में अन्य के अहित का भाव ही मृदुता आदि को माया की अनुक्रिया के रूप में परिवर्तित करता है। ३. धर्मी और धर्मों में कथञ्चित् अभेद की दृष्टि से इन भावों का जीव में आरोपण किया है और माया में जीव का अभिनय ही प्रधान है—यह भाव व्यक्त करने के लिये भी गुणी में गुण का आरोपण किया गया है।