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मोही जीव की माया के विषय में समझ
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'जमत्थि गोवणं तस्स, जं नत्थि तस्स दाअणं' ।
दक्खं कलं ति मण्णेइ, तं मायं मोह-वाउलो ॥२५॥
'जो है उसे छिपाना और जो नहीं उसको दिखाना' - ( ऐसी ) उस माया को मोह में बावरा ( बना हुआ मनुष्य ) दाक्ष्य = चतुराई और कला मानता है ।
टिप्पण - १. अपने हीन और दूसरे के उन्नत स्वरूप को दबाना अर्थात् जिस भाव का अस्तित्व है उसे छिपाना और अपने उन्नत और दूसरे के हीन स्वरूप को दिखाना अर्थात् जो नहीं है उसको प्रदर्शित करनायही माया का स्वरूप है । २. 'जो है उसे छिपाने और जो नहीं है उसे दिखाने' में बुद्धि का उपयोग करना पड़ता है । अत: माया चतुराई के रूप में दिखाई देती है । दूसरों के हृदय में विश्वास जमाने के लिये बातों और व्यवहार को असलियत का बाना पहनाकर आकर्षक बनाना पड़ता है । इसलिये माया ( धूर्तता ) एक कला है । मोह के हृदय से जिसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है, उन उन्मत्त या बावरे लोगों का ही ऐसा कथन हो सकता है । ३. मोही को यह समझना चाहिये कि माया व्याकुलता की जननी ही है । उसके बनावटीपन के खुल जाने का सदा भय बना रहता है। मायामोहनीय के उदय से होनेवाली क्रियाएँ
मायाए होंति संती वा, कंतिरूवत्ति दो किया । हिएसी परमेसोव, माई जणे पवत्तइ ॥ २६ ॥
माया से शान्ति के सदृश और क्रान्ति के सदृश —— ये दो क्रियाएँ होती हैं । मायी मनुष्यों में हितैषी और परमेश्वर के सदृश प्रवृत्ति करता है ।
टिप्पण -- १. मायामोहनीय कर्म- प्रकृति सत्ता से चलित होकर, जब फल प्रदान करने के लिये प्रवृत्ति होती है, तब दो प्रकार की आत्मचेष्टाएँ