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उसका उपयोग उससे मुक्त होने के लिये कसमसाता रहता है। इस माया के उदय से आयी हुई वक्रता अत्यन्त क्षीण होती है और सहज प्रयत्न से ही दूर हो जाती है। इसके निमित्त से बंधी हुई माया भी अत्यन्त अल्प स्थितिवाली और जल्दी ही क्षीण होनेवाली होती है। ५. माया के इन स्तरों को समझकर उसे पहचानने की बुद्धि उत्पन्न होती है और अपने दोषों को देखने की दृष्टि प्राप्त होती है। ज्यों-ज्यों जीव माया के चक्रों का भेदन करता है त्यों-त्यों उसका उपयोग निर्मल होता है । क्योंकि उपयोग बर्हिमुख करने में प्रधान हेतु माया ही है । ६. माया के उदय में यदि आयु का बंध पड़ता है तो उसके स्तर के अनुसार क्रमशः गति के आयु का बन्ध होता है । गइदाइणीके दो अर्थ-नरक आदि गति का आयु प्रदान करनेवाली और उदयानुसार अवस्था—तीव्रतम छल आदि भावों में परिणति करनेवाली । ७. इस विषय में श्रीपाल-चरित्रगत धवल सेठ और धर्मबुद्धि-पापबु द्धि चरित्रगत पापबुद्धि के दृष्टान्त ज्ञातव्य है । माया की मोहकता--
सुन्दरी उवमा-तुल्ला, माया माणस-मोहिणी । सानंदा तव्वसा जीवा, सा वि गूढा सही-णिहा ॥३१॥
माया (अपनी) उपमाओं के सदृश सुन्दर है। वह हृदय को मोहित करनेवाली है। उसके वशीभूत बने हुए जीव (उसमें) आनन्द से युक्त हो जाते हैं । छिपी हुई वह भी सखी के समान (जीवों को) प्रतीत होती है। - टिप्पण-१. उलझी हुई बाँस की जड़ और मुड़े हुए मेंढे के सींग सुन्दर प्रतीत होते हैं । कुंचित केश, कंगन, नूपुर, रोटी आदि गोल पदार्थ और फैणी, बड्ढी के बाल (= एक मधुर पदार्थ), त्रिभंगीमद्रा आदि उलझे हुए पदार्थ सुन्दर लगते हैं । वैसे ही माया भी सुन्दर लगती है। २. सुन्दर पदार्थ, कलाकृतियाँ आदि मनोमोहक होती हैं। वैसे ही माया भी त्रिभुवन-मनो-मोहिनी है। ३. माया को चतुर और तीक्ष्ण बुद्धिवाला