________________
( ७६ )
मान स्वतः अथवा परतः बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से उत्पन्न (होता) है । यह प्रयत्नपूर्वक ही जाना जाता है । क्योंकि यह मस्तक पर शासन करता है ।
टिप्पण -- १. मानकषाय का उदय स्वयं या दूसरे निमित्त से दोनों प्रकार से होता है । जब मानकषाय कर्म की स्थिति पूरी होने आती है तो कोई निमित्त न होने पर भी वह उदय में आ जाता है तब वह स्वतः उदितमान होता है और जब उसके उदय में किसी का निमित्त मिलता है, तब परतः
मन होता है । २. श्रुत, तप आदि आभ्यन्तर निमित्त हैं और धन, जन, जाति, सौन्दर्य, यश, पद आदि बाह्य निमित्त हैं । ३. मान क्रोध के समान आवेश से युक्त अभिव्यक्त नहीं होता है । अत: यह कभी पाप रूप में प्रतीत ही नहीं होता है और बौद्धिक प्रयत्न से ही जाना जा सकता है । ४. मान बुद्धि पर ही अपना अधिकार जमा लेता है अर्थात् समझने- सोचने में सहायक ज्ञान-तन्तुओं को अपने स्वाधीन कर लेता है । क्रोध तो उन्हें कुण्ठित कर देता है । परन्तु मान उनसे विशेष रूप से कार्य लेता है ।
( ३ )
माया के रूप
छलं कवड-जालं च, आच्छायणं च वक्कयं । विवरीय- मई वित्तं, माया करेइ मोहणं ॥ २४॥
माया छल, कपट, जाल ( और दंभ आदि), आच्छादन ( और दुर्गुणों का उद्भावन आदि), वक्रता, विपरीत बुद्धि और वृत्त = आचरण को सम्मोहन से युक्त करती है ।
=
टिप्पण - १. छल आदि माया के विविध रूप हैं । छल – ठगने की वृत्ति । कपट - अन्य की समझ को कुण्ठित करने की वृत्ति । जाल == किसी को फँसाने की वृत्ति । आच्छादन = अपने दोषों और दूसरे के गुणों को दबाना । वक्रता = विपरीत क्रिया । विपरीतमति = उल्टा चिन्तन ।